________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 121 मैंने सारी प्रजाका पालन किया। परन्तु एक चोर बराबर छल से नगर में चोरी करता रहता है। वह बड़े बड़े सेठों की चार कन्याओं को लेकर चला गया है। यद्यपि मैंने सतत उसके पद तथा स्थान की खोज की लेकिन अभी तक वहाँ जा न सका हूँ कि वह चोर कहाँ और कैसे रहता है / इसलिये मेरे हृदय में अयन्त दुःख हो रहा है। क्यों कि धन की इच्छा से जो आतुर है उसका कोई बन्धु तथा मित्र नहीं होता, वह सभी से किसी तरह से धन ही लेना चाहता हैं। काम से जो आतुर है उसको भय तथा लज्जा नहीं होती, वह किसी भी प्रकार वासना शान्त करना चाहता है। चिन्ता से जो व्याकुल है, उसको सुख तथा निद्रा नहीं होती। भूख से जो व्याकुल है उसका शरीर दुर्बल हो जाता है तथा शरीर में कान्ति नहीं रहती।" ऐसी बात सुनकर राजा बोला “हे मन्त्री ! मैं युक्ति से शीघ्र ही उसे पकड कर उस का वध करूँगा, क्यों कि जो कार्य पराक्रम से नहीं हो सकता वह युक्ति से करना चाहिये। जैसे कौओ की स्त्री ने बड़े कीमती सुवर्ण-हारकी मदद से अति भयंकर विषधर सर्प को मार कर अपने बच्चों की रक्षा की। यह सुनकर मन्त्रीने पूछाः- " हे महाराज ! यह कैसे हुआ ?" - तब राजा विक्रमादित्य कहने लगेः- 'हे भट्टमात्र! सुनो, किसी जंगल में एक वृक्ष पर काक अपनी स्त्री के साथ निवास करता था। कुछ दीन के बाद काक की स्त्री ने बहुतेरे अण्डे दिये। उसी वृक्ष के विवर में एक सर्प रहता था, जो प्रतिदिन उस विवर से निकल कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org