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________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित 113 तब राज हत्या, स्त्री हत्या आदिका भय दिखाता हुआ तथा अपना मनोवांछित कार्य सिद्ध हुआ समझकर अपने मन में अत्यंत आनन्दका अनुभव करते हुए पर प्रकट रूप में उसे न बताते हुए वह विद्याधर (विक्रम ) नीचे उतर कर राजा को देववाणी (संस्कृत ) में कहने लगा 'हे राजन् ! मैं देव हूँ और तुम मनुष्य हो। अतः देव और मनुष्य का योग कैसे हो सकता है। क्यों कि प्राणीयों का सम्बंध अपने समान कुल शील वालों के साथ ही होता है। ' कहा है कि "जिसका जिसके साथ धन अथवा श्रुत (शास्त्रज्ञान) समान रहता है, उन्हीं दोनों में परःपर मैत्री और विवाह दोनों अच्छे लगते है। किन्तु न्यूनाविक में वे शोभा को नहीं पाते। और भी मृग मृग के साथ, गो गो के साथ, मूर्ख मूर्ख के साथ और ज्ञानी ज्ञानी के साथ संग करते हैं। अर्थात् समान स्वभाव एवं आचार वालों में ही प्रेम रहता हैं।" . राजाका विक्रमादित्यको समझाना ___राजा शालिवाहनने उनकी ओर देखते हुए तथा शास्त्र वचनों को याद करके अपने मन में निश्चय किया कि ये देव तो नहीं है क्यों कि इनके पाँव जमीन पर टिके हुए हैं और इनकी आँखें भी देवों की तरह अचल नहीं हैं, अतः ये मनुष्य ही हैं अथवा तो कोई मंत्र तंत्र सिद्ध पुरुष हैं। शास्त्रों में कहा है कि___ 'ययोरेव समं वित्तं, ययोरेव समं श्रुतम् / ... तयो श्री विवाहश्च, न तु पुष्टविपुष्टयोः // 320 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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