________________ विक्रम चरित्र जो शुकी मिली वह भी ऐसी ही प्रतिकूल बिचार वाली तथा आलसपूर्ण थी। उसके गर्भवती होने पर प्रसवकाल निकट आया जान कर मैंने कहा कि हम दोनों मिलकर एक घोंसला बनावें पर उसने मेरी कुछ न सुनी। मैंने अकेले ही प्रयत्न करके शमी वृक्ष पर घोंसला बनाया / वहाँ उसने दो बच्चों को जन्म दिया। फिर मैं हमेशा आहार के लिए फल, जल आदि लाकर उसे तथा उसके बच्चों को दिया करता था। कुछ दिनों बाद भी मैंने जब उसे स्वयं अपना या बच्चों के आहार का कुछ अंश लाने को कहा तो उस आलसी शुकी ने ऐसा कुछ नहीं किया। थोडे ही दिनों बाद वृक्षों के संघर्ष से वन में बड़े जोरों से आग लग गई, जंगल के वृक्ष आदि को भस्म करती हुई वह अग्नि हमारे धोंसले के निकट आने लगी तब मैंने शुकी से कहा कि हम दोनों एक एक बच्चे को लेकर उड़ जायँ तो हम चारो बच जावेंगे / वह दुष्ट शुकी कुछ भी न बोली और जब आग हमारे घोंसले के अत्यन्त निकट आ गई तो वह दुष्टा अकेली ही उड़कर दूर चली गई। मैने दोनों बच्चो को लेकर उडनेका प्रयत्न तो किया मगर मैं न उड सका और उस आगसे हम तीनों भस्म हो गये / ' कहा भी है कि " सब प्राणी अपने अपने पूर्व जन्मार्जित पुण्य-पापसे ही देव, मानव, तिर्यंच (पशु-पक्षी) एवं नारक इन चारों गतियों में भ्रमण करते हुए सुख दुःखोंका अनुभव करते हैं / "* *पूर्वभवार्जित श्रेयोऽश्रेयोभ्यां प्राणिनोऽखिलाः / लभन्ते सुखदुःखे च भ्रमन्तश्च चतुर्गतौ // 299 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org