________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित "कृपण और कृपाण ( तलवार ) दोनों में केवल 'आकार' यानी 'आ' की मात्रा का भेद है। किन्तु गुणों का तो साम्य ही है। क्यों कि जैसे तलवार की मूठ (हत्था) मजबूत बँधी हुई होती है, उसी प्रकार कृपण की मूठ (मुष्टि) भी दृढतर रहती है / एवं तलवार कोष (म्यान) में रहती है। वैसे ही कृपण का ध्यान भी सदैव कोष ( खजाना) में रहता है। अर्थात् थोड़ा भी दान नहीं करता। तलवार स्वाभाविक मलिन (काली) होती है वैसे कृपण भी स्वाभाविक मलिन ( अनुदार) भाव रहता है। "* और भी कहा है:--- " केवल संग्रह करने में ही तत्पर समुद्र कृपणता के कारण पाताल में पहुँचा हुआ है। और दान देने में तत्पर मेघ सदा परोपकार की वृत्ति के कारणं समुद्र के ऊपर गरजता रहता है।" एक दिन 'श्रीमती' ने अपने पति धन श्रेष्ठी से कहा कि 'हे स्वामिन् ! अस्थिर स्वभाव वाली लक्ष्मी को धर्म एवं दीन प्राणियों - आदि के उद्धार में लगाकर सार्थक कीजिये / ' क्यों कि कहा है: " नरक जाने वाले लोग धन को पृथ्वी के नीचे खड्डा कर के रखते हैं और जो स्वर्ग जाने वाले लोग हैं वे बड़े बड़े मन्दिर और ___ * दृढतरनिबद्धमुष्टेः कोषनिषण्णस्य सहजमलिनस्य / ... ' कृपणस्य कृपाणस्य केवलमाकारतो भेदः // 111 // संग्रहैकपरः प्राप समुद्रोऽपि रसातलम् / दातारं जलदं पश्य समुद्रोपरि गर्जति // 112 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org