________________ 67 मुनि निरंजनविजयसंयोजित इस प्रकार नाई के मुख से अद्भुत वृत्तान्त सुनकर महाराज विक्रमादित्य बड़े गम्भीर-भाव से बोले कि-'हे महानुभाव ! तुमने यह सच ही कहा कि सब प्राणियों में कर्मानुसार रूप का न्यूनाधिक-भाव देखा जाता है।' महाराज विक्रमादित्य इस प्रकार सोच कर लक्ष द्रव्य राज-भंडार से मंत्रीद्वारा मँगवाकर ज्यों ही नापित को देने लगे, त्योंही उस नापित ने आश्चर्यकारक सात कोटि सुवर्ण मुहरें राजा के आगे प्रकट की। राजा ने मन में विचार किया कि 'इन के आगे मैं अल्पधनी तथा ज्ञानशून्य हूँ।' नाई का देवरूप प्रकट होना इतने में ही उस नापित ने दिव्य कुंडलादि युक्त अपना देव सदृश रूप धारण किया / उस दिव्यस्वरूप वाले देव को सामनेदेखकर सजा, मंत्री आदि सभी सभा-जन आश्चर्य चकित हुए। राजा ने पूछा कि-'तुम कौन हो ? कहाँ से और किसलिये आये हो ?' देव ने कहा कि-' मैं ' सुन्दर' नामक देव हूँ, देव-दर्शन के लिये मेरु पर्वत पर गया था, वहाँ जिनेश्वर भगवान् के दर्शन कर और अप्सराओं का नृत्य-गानादि नाटारम्भ देखकर मनुष्य लोक देखने के लिये मैं पृथ्वी पर आया हूँ। प्रतिष्ठानपुर में घूमकर - वहाँ मनोहर उद्यान में राज-कन्या सुकोमला को देखता हुआ यहाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org