________________ मुनिनिरंजनविजयसंयोजित रात्रि में आकर स्वेच्छा से बलि लिया करता था। एक दिन रात्रि में उसी प्रकार बलि देकर राजवीने अग्निवेताल से पूछा कि-' हे अग्निवेताल! आप में किस किस प्रकारका ज्ञान एवं कौन कौन सी शक्तियाँ हैं ? ' इस प्रकार पूछने पर अग्निवेताल हँसते हुए बोला. की-" हे राजन् ! जो मेरे विचार मैं आता है वह में करता हूँ, दूरसे ही सबको जानता हूँ और सब जगह जा सकता हूँ।" अग्निवेताल का यह वचन सुनकर राजवीने उससे कहा कि-' हे मित्र ! मेरी आयु कितने वर्ष की है सो कहो।' तब अग्निवेतालने अवधिज्ञान से जानकर कहा कि-" हे राजन् ! तुम्हारी आयु पुरी सौ वर्ष की है।" तब यह सुनकर राजवीने कहा कि मेरी आयु के सौके अंक में जो दो शून्य पड़े है, उन के संग से मेरा जीवन शोभा नहीं देता। जैसे कहा है किः " जैसे मनुष्य रहित घर, वृशादि से रहित वन तथा मूर्ति के बिना बडा मंदिर भी शोभा नहीं देता एवं राजा के बिना राज्य और सैन्य नहीं शोभते हैं।" .. - उसी प्रकार मेरे जीवन में-आयुके 100 के अंक में दो शून्य शोभा नहीं देते हैं। इसलिये 'हे अग्निवेताल ! - शून्यं गृहं वनं शून्यं, शून्यं चैत्यं महत्पुनः। नृपशून्यं बलं नैव, भाति शून्यमतिमिव // 146 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org