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________________ विक्रम चरित्र इसकी परवाह नहीं रहते है / "x - " केसरीसिंह को मैं अकेला हूँ, असहाय हूँ, दुर्बल हूँ तथा शस्त्रहीन हूँ इस प्रकारका विचार स्वप्न में भी नहीं आता है।" इस प्रकार अवधूत राजवीका धैर्ययुक्त वचन सुनकर अग्निवेताल सोचने लगा कि यह पुरुष महा पराक्रमी और सत्त्वशाली लगता है। राजवी को बडा ही भाग्यशाली तथा राज्य के योग्य देखकर उनके आगे सन्तुष्ट हो कर बोला-'हे नरवीर ! "तुष्टोऽहम्" अर्थात् मैं तुम पर प्रसन्न हूँ / इसलिये तुम नीति मार्ग से इस राज्य एवं प्रजाका पालन करो और इसी तरह की श्रेष्ठ बलि सामग्री नित्य हमारे लिये रखना। तब अवधूत राजवीने इस बात को स्वीकार किया और अग्निवेताल भी अदृश्य हो अपने इष्टस्थान को चला गया। पाठक गण! सोचिये, अवधूत विक्रमसे अधम बलवान् असुर अग्निवेताल जिसने अनेक राजाओं को मारकर स्वर्गधाम पहुँचाया था, क्षण में ही क्योंकर वशीभूत हुआ ? यह कहना होगाकि अनेक x सदाचारस्य धीरस्य, धमतो दीर्घदर्शिनः / न्यायप्रवृत्तस्य सतः, सन्तु वा यान्तु वा श्रियः // 135 // * एकोऽहमसहायोऽहं कृशोऽहमपरिच्छदः / स्वमेऽप्येवंविधा चिन्ता मृगेन्द्रस्य न जायते // 136 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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