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________________ mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm विक्रम चरित्र तो भी उसकी श्यामता नष्ट नहीं होती / कहा है कि स्नेहेन भूरिदानेन कृतः स्वस्थोऽपि दुर्जनः। दर्पणश्चान्तिके तिष्ठन् करोत्येकमणि द्विधा // अर्थात् दुर्जन मनुष्य स्नेह और धन से सन्मानित होने पर भी हृदय की बातें लेकर अपने को धोखे में डालता है, जैसे दर्पण समीपमें रहकर एक मुख को भी दो करके दिखाता है। पाठक गण ! अब आप यह भी जानने को उत्सुक होंगे कि विक्रमादित्य अवधूत के वेष में भट्टमात्र से अलग होकर कहाँ गया और उसका क्या हुआ ? / अब मैं वहाँ से कथा का आरम्भ करूँगा, जहाँ दूसरे प्रकरण में विक्रमादित्य भट्टमात्र से अलग हुए हैं। विक्रम अवधूत वेष में, घूमते घामते अवन्ती नगरी के बाहर क्षिप्रा नदी के तट पर आ पहुँचा / वहाँ एक विशाल वटवृक्ष के नीचे अवधूतने अपनी धूनी लगायी और आसन जमाकर बैठ गये। इस अवधूत को देखने के लिये नगर से लोग वहाँ आने लगे। वे प्रणाम करके बैठ जाते थे तथा उपदेशामृत सुनते थे। धीरे धीरे नगरी की THIHIIIMa VIALIE Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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