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________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित यतीनां कुर्वतां चिन्तां, गृहस्थानां मनागपि / जायते दुर्गतौ पातः, क्षयश्च तपसः पुनः // 74 / / अर्थात् गृहस्थाश्रम की चिन्ता करने से साधुओंका. तप. क्षीण होता है। और ये दुर्गति में गिरते हैं। सद्भावो विश्रम्भः स्नेहो रतिव्यतिकरो युवति जने। स्वजनगृहसंप्रसारः तपः शीलव्रतानि स्फोटयेत् // अर्थात् युवती स्त्री में सद्भाव रखना तथा उनमें विश्वास करना और रतियुक्त प्रेम करना और स्वजन के घरकी चिन्ता-ये सब तप, शील और व्रत को नाश करते हैं। इस प्रकार बोलते हुए योगी xभर्तृहरि मणि रत्नों में तथा तृग में समान बुद्धि रखते हुए मन्त्रीवर्ग तथा पौरजनों द्वारा अतिनम्र भाव से विनन्ति करने पर भी अपने वैराग्य भाव में स्थिर रह कर राज्य वैभवको त्याग कर अज्ञान तथा पापनाशार्थ आत्मकल्याण करने के लिये जंगलमें चले गये। ____x पाठको ! महायोगी भर्तृहरि अति प्रखर विद्वान् थे। उनके बनाये हुए: ‘वैराग्यशतक' शृंगारशतक' और 'नीतिशतक' आदि बड़े ही भावपूर्ण ग्रंथ संस्कृत-अभ्यासी विद्वत्समाज के आगे अभी भी मौजूद हैं और वे हिन्दी, गुर्जर आदि भाषा में अनुवाद के साथ अनेक संस्थाओ की तरफ से छपे हुए हैं। इनके ग्रन्थ पढने योग्य तथा ज्ञान . * बढाने वाले हैं। इसलिये पाठको ! यदि अभीतक एसा.. * अवसर न मिला तो अब अवश्य पढने की कोशिश करें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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