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________________ विक्रम चरित्र बाद मन्त्रीवर्ग मिलकर वैराग्य वासित योगी भर्तृहरि के पास जाकर विनंति करने लगा-'हे राजन् ! आप यह क्या करते हो, क्यों कि यह सब राज्य आपके बिना नाश हो जायगा / ' / यह सुनकर योगी, भर्तृहरि गम्भीर स्वर से बोले कि हे अमात्य ! यह राज्य किसका ? बंधु बान्धव किसके ? क्योंकि जैसे 'पक्षीगण अपने स्वार्थवश किसी एक वृक्षपर आते हैं और फिर अभीष्ट सिद्ध होजानेपर सब अपने अपने स्थान में चले जाते हैं, उसी तरह मनुष्य अपने स्वार्थवश प्रेम करके मिलते हैं। इस परिवर्तनशील संसार में करोड़ों माता, पिता, पुत्र, स्त्री और भाई तथा बन्धु जन्म-जन्मान्तर में हो चुके हैं / कहो, मैं किसका बन्धु और मेरा कौन बान्धव है ? जैसे सहस्रशो मया राज्य-लक्ष्मीः प्राप्ता भवान्तरे / पैराग्यश्रीन कुत्रापि, लब्धा स्वर्गापवर्गदा // 73 // अर्थात् इस अनादि संसार में हम कितनेवार भवान्तर में राज्यलक्ष्मी तथा पूर्ण ऐश्वर्य पाये होंगे, किन्तु स्वर्ग और मुक्ति को देने वाली वैराग्य लक्ष्मी को मैंने किसी जन्म में नहीं पाया / इसलिये मुझे इस अनेक व्याधिग्रस्त राज्य से वैराग्य ही अच्छा लगता है / अतः तुम इस विषय में आग्रह मत करो, क्यों कि शुद्ध तपस्वियों को थोडी भी गृहचिन्ता पापरूपी कीचड लंगाती है / जैसा कहा है-- Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004265
Book TitleMaharaj Vikram
Original Sutra AuthorShubhshil Gani
AuthorNiranjanvijay
PublisherNemi Amrut Khanti Niranjan Granthmala
Publication Year
Total Pages516
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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