________________ सुनि निरंजनविजयसंयोजित . यह दिव्यफल मेरे द्वारा पटरानी को, पटरानी द्वारा महावत को, और महावत द्वारा वेश्या को तथा वेश्या द्वारा पुनः मुझे प्रसन्न करने के लिये अर्पण किया गया। ये सब हाल राजाने ठीक ठीक जाना तो हृदय में बडा खेद उत्पन्न हुआ और संसार की असारता सोचते हुए स्त्रियों के माया और प्रपंच के स्वयं अनुभव से संसार के प्रति महाराज को तिरस्कार एवं विरक्तभाव उत्पन्न हुआ और बोले किभर्तृहरिकी विरक्तियां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, साऽप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽज्यसक्तः / अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च // 63 // ____ अर्थात् जिस पटरानी का मैं हमेशा प्रेम से चिंतन करता हूँ वह मुझे नहीं चाहती और दूसरे(महावत)को चाहती है, वह पटरानी जिसको चाहती है वह महावत पटरानी को नहीं चाहता किन्तु वेश्या में आसक्त है, वह वेश्या मुझे प्रसन्न करना चाहती है। इसलिये उस 'रानी' को, 'महावत' को, 'कामदेव' को तथा इस. 'वेश्या' को और 'मुझे धिक्कार हो। ___ यह संसार नीरस है इसमें कुछ नहीं है / जैसा कहा है अहो! संसार-वैरस्यं, वैरस्य कारणं स्त्रियः। दोलालोला च कमला, रोगा भोगा देहं गेहम् // 66 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org