________________ मुनि निरंजनविजयसंयोजित अर्थात् व्याघ्रादि हिंसक प्राणियों से व्याप्त और कण्टकों से परिपूर्ण, जलशून्य वनमें घास की शय्या पर वल्कल वस्त्रधारी होकर रहना अच्छा है किन्तु कुटुम्बियों के साथ निर्धन होकर जीना श्रेष्ठ नहीं है / और भी कहा है : जीवन्तो मृतका पञ्च, श्रयन्ते किल भारते। दरिद्रो व्याधितो मूर्खः, प्रवासी नित्यसेवकः // 49 // . अर्थात् इस संसार में पाँच व्यक्ति जीते हुए भी मुर्दे के समान हैं-निर्धन, रोगी, मूर्ख, सदा मुसाफरी करनेवाला और सदा नौकरी से जीवन चलाने वाला / . . इस प्रकार ब्राह्मण का वचन सुनकर देवीने कहाः- तेरा भाग्य ऐसा नहीं है जिससे तेरे पासमें बहुत धन होजाय / तो भी जाओ तुम्हें कुछ धन जरूर मिलेगा।' यह सुनकर मैं घर आया और स्नान कर देव-पूजा की। बाद में फल खाने को बैठा तो :: उस समय मेरे मनमें एक विचार आया- " ममानेन दरिद्रस्य जीवितेनाधिकेन किम् ? " इस दरिद्र अवस्था में मुझे लम्बे जीवन से क्या लाभ ? इस लिये यह आयुवर्धक दिव्य फल अवन्तिपति महाराज को दे दिया जाय, जिनके जीवन से अनेकों प्राणियों को सुख प्राप्त हो / नीतिशास्त्र कहता है : दुर्बलानामनाथानां, बाल-वृद्ध-तपस्विनाम् / अन्यायैः परिभूतानां, सर्वेषां पार्थिवो गतिः // 56 // Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org