________________ जैसे जीव केवलज्ञानमयी है। इस नय की विशेषता बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से जीव के न बन्ध है, न मोक्ष है और न गुणस्थानादि हैं। अब क्रमप्राप्त द्वितीय भेद के स्वरूप को बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि जो जय कर्मजनित विकार सहित गुण और गुणी को अभेद रूप से ग्रहण करता है, वह अशद्ध निश्चय नय कहलाता है। जैसे - मतिज्ञानमयी जीव है। शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा अशुद्ध निश्चयनय भी व्यवहार है ऐसा आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने समयसार में भी कहा है। रागादि यद्यपि अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से चेतन हैं तथापि शद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से नित्य सर्वकाल अचेतन हैं। ऐसा सभी स्थानों में जान लेना चाहिय। व्यवहार नय के भी दो भेद हैं - सद्भूत व्यवहार नय और असद्भूत व्यवहार नया' इन दोनों में से जो एक वस्तु को विषय करता हो वह सद्भूतव्यवहार नय कहलाता है। जैसे वृक्ष एक है, उसमें लगी शाखायें यद्यपि भिन्न हैं तथापि वृक्ष ही हैं। उसी प्रकार यह सद्भूत व्यवहार नय गुण और गुणी का भेद कथन करता है। जीव के ज्ञान, दर्शनादि। सद्भूत व्यवहारनय के भी दो भेद हैं। उपचरित सद्भूत व्यवहारनय और अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय। उनमें से भी कर्मजनित विकार सहित गुण-गुणी के भेद को विषय करने वाला उपचरित सद्भूत व्यवहारनय कहलाता है। जैसे - जीव के मतिज्ञानादिक गुणा संज्ञा, संख्या, लक्षण, प्रयोजन आदि की अपेक्षा भेद करना उपचरित सद्भूत व्यवहारनय का विषय है। जो कर्मजनित विकार रहित जीव में गुण और गुणी के भेद रूप विषय को ग्रहण करता है वह अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय है। जैसे - जीव के केवलज्ञानादि गुणा आ. प. सू. 220 वही सू. 224 आ. प. सू. 225 92 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org