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________________ 'भेदकल्पनानिरपेक्ष: शुद्धो द्रव्यार्थिको यथा निजगुणपर्यायस्वभावाद् द्रव्यमभिन्नम्'।' अर्थात शुद्ध द्रव्यार्थिक नय भेदकल्पना की अपेक्षा से रहित है। जैसे निजगुण से, निजपर्याय से और निजस्वभाव से द्रव्य अभिन्न है। यहाँ पर आचार्य देवसेन स्वामी का यह तात्पर्य है कि यद्यपि संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन की अपेक्षा गुण और द्रव्य में, पर्याय और द्रव्य में तथा स्वभाव और . द्रव्य में भेद है, किन्तु प्रदेश की अपेक्षा गुण-द्रव्य में, पर्याय-द्रव्य में, स्वभाव-द्रव्य में भेद नहीं है अर्थात् अनेकान्तरूप से द्रव्य भेदाभेदात्मक है। शुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय भेद नहीं है मात्र अभेद है। भेद विवक्षा को गौण करके शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा गण-पर्याय-स्वभाव का द्रव्य से अभेद है, क्योंकि प्रदेश भेद नहीं है। अब चतुर्थ भेद को कहते हैं जो नय समस्त रागादि भावों में 'जीव है' ऐसा कहता है (अथवा समस्त रागादिक भावों को जीव में कहता है) वह नय कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहलाता है। यहाँ आचार्य देवसेन स्वामी कहना चाहते हैं कि - अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय अशुद्ध द्रव्य है। संसारी जीव अनादिकाल से पौद्गलिक कर्मों से बंधा हुआ है इसलिये अशुद्ध है। संसारी जीव में कर्मजनित औदयिक भाव निरन्तर होते रहते हैं। वे औदायिक भाव जीव के स्वतत्त्व हैं। क्रोधादि कर्मजनित औदयिकभावमयी आत्मा अशुद्ध-द्रव्यार्थिक नय का विषय है। पाँचवें भेद को बताते हुए आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि - 'उत्पादव्ययसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथैकस्मिन् समये द्रव्यमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकम्" अर्थात् उत्पाद-व्यय की अपेक्षा सहित द्रव्य अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का विषय है। जैसे - एक ही समय में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक द्रव्य है। इसी विषय को नयचक्र में भी कहा है-'जो आ. प. सू. 49 कर्मोपाधिसापेक्षोऽशुद्धद्रव्यार्थिको यथा क्रोधादिकर्मजभाव आत्मा। आलापपद्धति 50 नयचक्र 21 आ. प. सू. 51 80 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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