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________________ नय के भेदों का स्वरूप नय के जब भेद किये जाते हैं तो उनमें मुख्य रूप से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो भेद लगभग सभी आचार्य स्वीकार करते हैं। उनका स्वरूप बताते हुए आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि - पज्जयगउणं किच्चा दव्वं पि य जो हु गिण्हए लोए। सो दव्वत्थो भणिओ विवरीओ पज्जयत्थो दु।' द्रव्यार्थिक-नय - जो नय लोक में पर्याय को गौण करके द्रव्य को ही ग्रहण करता या जानता है वह द्रव्यार्थिक नय कहा गया है। पर्यायार्थिक नय - जो द्रव्यार्थ के विपरीत है अर्थात् द्रव्य को गौण करके पर्याय को ही जानता है वह पर्यायार्थिक नय कहलाता है। इन्हीं दोनों को आचार्य देवसेन स्वामी ने अपने ही द्वारा रचित नय को विषय करने वाला अन्य शास्त्र आलाप पद्धति में भी उल्लिखित किया है कि - 'द्रव्य ही जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है, वह द्रव्यार्थिक नय है और पर्याय ही जिसका प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक नय है। इन दोनों मुख्य नयों में से द्रव्यार्थिक नय के 10 भेद आचार्यों ने प्रतिपादित किये हैं। उनमें से प्रत्येक के स्वरूप को भी प्रतिपादित किया है। उनको हम क्रम के / अनुसार यहाँ सब भेदों को समझने का प्रयास करते हैं। उनमें सर्वप्रथम कर्मोपाधि निरपेक्ष . शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के स्वरूप को आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं - 'जो नय कर्मों के मध्य में स्थित संसारी जीव को सिद्धों के समान शुद्ध ग्रहण करता है या जानता है उस नय को कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय कहते हैं। यहाँ आचार्य देवसेन स्वामी ने यह निहित किया है कि यद्यपि संसारी जीव कर्मोपाधि सहित है तथापि शुद्ध द्रव्यार्थिक नय उस जीव को कर्मोपाधि से रहित सिद्ध जीव के समान शुद्ध बतलाता है। कर्मोपाधि अर्थात् कर्मबन्ध जीव की अशुद्धता का कारण है, नयचक्र गा. 17 द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः। पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः। आ.प.सू. 184,191 न. च. 18 'कर्मोपाधिनिरपेक्षः शुद्धद्रव्यार्थिको यथा संसारीजीवः सिद्धसदृक् शुद्धात्मा।' आलापपद्धति सूत्र 47 ___78 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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