________________ को ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है और जिसके द्वारा अनन्त धर्मी वस्तु के किसी एक अंश का ग्रहण किया जाय वह नय कहलाता है। . नयवाद जैनदर्शन की अपनी विशिष्ट विचार पद्धति है, जिसमें प्रत्येक वस्तु के विवेचन में नय का उपयोग होता है। प्रमाण नयों का स्वरूप है। अतः प्रमाण के स्वरूप को समझने के लिये पहले नयों का ज्ञान करना आवश्यक है, क्योंकि आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं कि - ‘णत्थि णयहिं विहणं सुत्तं अत्थोव्व जिणवरमदम्हि'। अर्थात् भगवान् जिनेन्द्र के मत में नय के बिना सूत्र और अर्थ कुछ भी नहीं है। इतना महत्त्वपूर्ण तत्त्व होने से नय के स्वरूप को अच्छी प्रकार से समझ लेना चाहिये, क्योंकि अनन्त धर्मात्मक वस्तु के अनन्त धर्मों को नय ही पृथक्-पृथक् रूप से प्रकाशित करता है। इन्हीं नयों के विवेचन में आगम को आधार बनाकर जैनाचार्यों और जैन चिन्तकों ने अनुपम ग्रन्थों की रचना की है। जिनमें आप्तमीमांसा, न्यायावतार सन्मति तर्क, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय, लघीयस्त्रय, अनेकान्तजयपताका, प्रमाण परीक्षा, परीक्षामुख, प्रमाणमीमांसा, प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र, न्यायदीपिका, प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार, जैनतर्कभाषा, नयचक्र, न्यायविवरण, द्वादशारनयचक्र एवं आलापपद्धति प्रमुख हैं। नय एवं प्रमाण के सम्यक् प्रतिपादन में कतिपय टीका ग्रन्थों को भी नकारा नहीं जा सकता है। इनमें तत्त्वार्थसूत्र की टीका सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य, तत्त्वार्थराजवार्तिक, तत्त्वार्थवत्ति. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार, विशेषावश्यकभाष्य एवं वृत्ति, आप्तमीमांसा पर अष्टशती और अष्टसहस्री टीकायें विशेष रूप से मननीय एवं भजनीय हैं। जैनाचार्यों ने नयों का प्रतिपादन वस्तु की हेयोपादेयता को दृष्टि में रख कर किया है। नय जब अपने-अपने अंशों का ज्ञान कराते हैं, तब वे परस्पर में विरोधी दिखलाई देते हैं। जैसे-द्रव्य, द्रव्यस्वरूप है, तब वह उसी क्षण पर्याय रूप से कैसे है? द्रव्य-पर्याय में ये विरोधी दोनों धर्म वस्तु में एक साथ कैसे रह सकते हैं? वस्तु में निहित इन विरोधों को मिटाने वाला ‘स्याद्' पद उपलक्षित स्याद्वाद सिद्धान्त जैनदर्शन में सर्वोपरि महत्त्व रखता है। स्याद्वाद का अवलम्बन लेकर नयों के द्वारा वस्तुगत अनन्त धर्मों का ज्ञान अथवा यथार्थबोध किया जाता है। इस दृष्टि से नय स्याद्वाद के ही उपांग हैं। वस्तु नयों और उपनयों द्वारा ज्ञात होने वाले त्रिकालवर्ती एकान्तधर्मों का समुच्चय है, जिन्हें पृथक् नहीं 71 Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org