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________________ प्रथम परिच्छेद : नय का स्वरूप एवं भेद भारतीय चिन्तन की परम्परा में जैनधर्म तथा दर्शन का अपना एक अलग स्थान है। इसके अनुसार वस्तु का स्वरूप ऋत, सत्य और सत से लक्षित होता है। सत्ता भी वही जो उत्पत्ति, स्थिति (ध्रौव्य) तथा विलय से सम्बद्ध है। प्रत्येक त्रयात्मक वस्तु अनन्त धर्मों का समूह है। इस अनन्त धर्मात्मक तत्त्व की अवधारणा जैनदर्शन में प्रमाण तथा नय / के आधार पर की गई है। इन दोनों के द्वारा वस्तु को एक और अनेक रूपों में क्रमश: जाना जा सकता है। प्रमाण तथा नय का सम्बन्ध सापेक्ष है। नय को समझे बिना प्रमाणों के स्वरूप का बोध नहीं किया जा सकता है, क्योंकि अनेकान्तात्मक पदार्थ का कथन नय और प्रमाण द्वारा ही संभव है। सत्य विराट, विभु, अनन्त और असीम होता है, किन्तु मानव का परिमित ज्ञान उसे सम्पूर्ण रूप से जानने में असमर्थ रहता है। वह आंशिक रूप से ही वस्तु तत्त्व को जान पाता है। सत्य के परिपूर्ण बोध हेतु जीवन में व्यापक दष्टिकोण नितान्त अनिवार्य है। जैनदर्शन की सत्योन्मुखी अनेकान्त दृष्टि मानव जीवन के विकास के व्यष्टि, समष्टि और परमेष्ठी की क्रमबद्ध दृष्टि की महिमा को प्रस्तुत करती है। उस अनेकान्त दृष्टि की महिमा का मण्डन करते हुए आचार्य सिद्धसेन दिवाकर .. लिखते हैं कि जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा न निव्वडइ। तस्स भुवणेक्क गुरुणो णमो अणेगंतवायस्स। अर्थात् जिसके बिना सम्पूर्ण लोकव्यवहार भी सम्पन्न नहीं होता, उस अनेकान्त / रूपी लोकगुरु को नमस्कार हो। व्यष्टि अपनी तुच्छ सीमा में बन्द न हो, समष्टि व्यक्ति के विकास पथ में अवरोध न बने, अपितु ये दोनों परस्पर समझौता करके परमेष्ठी स्वरूप को अधिगत करें, यही अनेकान्तवाद सिखलाता है। ऐसे अनुपम सिद्धान्त को विकसित एवं प्रतिष्ठित करने का सम्पूर्ण गौरव जैनाचार्यों को प्राप्त होता है। अनेकान्तवाद हमें सर्वशुभंकर और सर्वहितंकर विशाल दृष्टिकोण प्रदान करता है। जड़-चेतनमय इस विश्व में प्रत्येक वस्तु सत्य, शाश्वत और अनन्त है। प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। अनन्त धर्मात्मक वस्तु का सम्पूर्ण ज्ञान दो प्रकार से होता है। वे हैं - प्रमाण और नय। वस्तु के समस्त धर्मों 70 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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