________________ चतुर्थ परिच्छेद : द्रव्य के सामान्य एवं विशेष गुण जो सदैव द्रव्यों के साथ रहें अर्थात् सहभू हों उन्हें गुण कहते हैं। अर्थात् जो द्रव्य के बिना ठहर ही नहीं सकते। द्रव्य के आश्रय से ही सदैव रहते हैं वे गण कहलाते हैं। वे गुण दो भेद वाले हैं - सामान्य गुण एवं विशेष गुण। जो गुण सभी द्रव्यों में समानरूप से पाये जाते हैं वे सामान्य गुण कहलाते हैं। एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से पृथक् करते हैं वे विशेष गुण कहलाते हैं। सामान्य गुण दस हैं जो निम्न हैं अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व। . अब सामान्य गुणों का स्वरूप प्रदर्शित करते हुए आचार्य लिखते हैं - जिस द्रव्य को जो स्वभाव प्राप्त है, उस स्वभाव से च्युत न होना अस्तित्व गुण कहलाता है। सामान्य विशेषात्मक वस्तु होती है, उस वस्तु का जो भाव है वह वस्तुत्व गुण कहलाता जो अपने प्रदेश-समूह के द्वारा अखण्डपने से अपने स्वभाव एवं विभाव पर्यायों को प्राप्त होता है, होवेगा, हो चुका है वह द्रव्य है। उस द्रव्य का जो भाव है वह द्रव्यत्व गुण कहलाता है। अथवा वस्तु के सामान्यपने को द्रव्यत्व गुण कहते हैं। जिस शक्ति के निमित्त से द्रव्य किसी भी प्रमाण (ज्ञान) का विषय अवश्य होता है वह प्रमेयत्व गुण कहलाता है। जो सूक्ष्म है, वचन के अगोचर है, प्रतिसमय ण से जाना जाता है, वह अगुरुलघु गुण कहलाता है। संसार अवस्था में कर्म से पराधीन जीव में स्वाभाविक अगुरुलघु गुण का अभाव पाया जाता है, परन्तु कर्मरहित अवस्था में ही प्राप्त हो सकता है। जिस गुण के निमित्त से द्रव्य क्षेत्रपने को प्राप्त हो वह प्रदेशत्व गुण कहलाता है। अनुभूति का नाम चेतना है, जिस शक्ति के निमित्त से स्व-पर की अनुभूति अर्थात् प्रतिभासकता होती है वह चेतनत्व ON - न्यायदीपिका, त. सू. 5/41, आलापपद्धति आलापपद्धति आलापपद्धति 59 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org