________________ पर्याय का वर्णन करते हुए आचार्य लिखते हैं कि तद्भावः परिणामः' अर्थात् उसका होना अथवा प्रतिसमय बदलते रहना परिणाम है और परिणाम को ही पर्याय कहा जाता है। यहां आचार्य यह कहना चाहते हैं कि गुणों के परिणमन को पर्याय कहते हैं। द्रव्य के विकार विशेष रूप से भेद को प्राप्त होते रहते हैं अतः ये पर्याय कहलाते हैं।' जो सर्व ओर से भेद को प्राप्त करे वह पर्याय है। आचार्य देवसेन स्वामी के अनुसार गणों के विकार को पर्याय कहते हैं।' अर्थात् जब गुणों में किसी प्रकार की विकृति आती है तो उसको ही पर्याय कहते हैं। इन सब आचार्यों के द्वारा बताये गये स्वरूप में एक बात सामान्य यह है कि परिणमन शब्द का प्रयोग प्रत्येक आचार्य ने किया है। इससे यह प्रतीत होता है कि परिणमन का नाम ही पर्याय है। अतः जो द्रव्य में स्वभाव और विभाव रूप से सदैव परिणमन करती रहती है अथवा जो द्रव्य में क्रम से एक के बाद एक आती रहती है उसे पर्याय कहते हैं। आचार्य कहते हैं कि- जैसे गोरस अपने दुध-दही-घी आदिक पर्यायों से जुदा नहीं है, उसी प्रकार द्रव्य अपनी पर्यायों से जुदा अर्थात् पृथक् नहीं है और पर्याय भी द्रव्य से जुदे नहीं हैं। इसी प्रकार द्रव्य और पर्याय की एकता है। आचार्य कहते हैं कि-द्रव्य और गुणों की एकता है। जैसे-एक आम द्रव्य है और उसमें स्पर्श,रस,गन्ध,वर्ण गुण हैं। यदि आम न हो तो जो स्पर्शादि गुण हैं, उनका अभाव हो जाय क्योंकि आश्रय के बिना गुण नहीं रह सकते हैं और यदि स्पर्शादि गुण न हों तो आम का अभाव हो जायेगा क्योंकि अपने गुणों से ही आम का अस्तित्व है। द्रव्य के भेद - द्रव्य के मुख्य रूप से दो भेद कहे गये हैं जीवद्रव्य और अजीव द्रव्य। आचार्य वीरसेन स्वामी ने द्रव्य के दो भिन्न रूप से भी भेद माने हैं- संयोग द्रव्य और समवाय द्रव्य। संयोग द्रव्य- अलग-अलग सत्ता वाले द्रव्यों के मेल से जो उत्पन्न हो उसे संयोग द्रव्य कहते हैं। जैसे- दण्डी, छत्री, मौलि।. त.सू. 5/42 स.सि. 5/38 आ.प. सूत्र 15 पं.का. गाथा 13 51 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org