________________ Vबन्ध तत्त्व - आगे बन्ध तत्त्व का स्वरूप बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि जीव के क-एक प्रदेश के साथ अनंतानन्त कर्मवर्णणायें घनीभूत अन्धकार के जैसे इकट्ठी होकर पदध-पानी की तरह एकमेक हो जाती हैं। इस प्रकार आत्मा के प्रदेशों और कर्मवर्णणाओं का अन्योन्यप्रवेश होना ही बन्ध तत्त्व कहलाता है।' आयुकर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का बंध प्रतिसमय होता रहता है, क्योंकि आयुकर्म का बन्ध आयु के त्रिभाग में होता है। ऐसे आयुबंध के आठ त्रिभाग (अपकर्षकाल) आते हैं, इन्हीं समयों में आयु का बन्ध होता है अन्य समयों में नहीं। बन्ध के भेदों का वर्णन करते हुए आचार्य लिखते हैं कि भगवान् जिनेन्द्र के द्वारा कथित सिद्धान्त शास्त्रों में बन्ध के चार भेद हैं-प्रकृतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभाग बन्ध और प्रदेशबन्धा आचार्य उमास्वामी ने तो बन्ध तत्त्व का वर्णन करते हुए पूरा आठवाँ अध्याय लिख दिया है। बन्ध तत्त्व को भी दो प्रकार से परिभाषित किया गया है। अर्थात् भाव बन्ध और द्रव्य बन्ध। इनमें जिन परिणामों से पुद्गल कर्म वर्गणाओं का आत्मप्रदेशों से एकमेक होना संभव होता है वह भावबन्ध है और कषाय सहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करता है वह द्रव्य बन्ध कहलाता है। भावबन्ध में उसके हेतुओं का निरूपण करते हुए लिखा है कि मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये भाव बन्ध के पाँच हेत हैं। इन्हीं पाँचों के कारण से आत्मा कर्मों से बंधती है जिनमें मुख्य रूप से कषाय के कारण ही कर्म बन्ध होता है। आचार्य देवसेन स्वामी ने भी बन्ध तत्त्व की विशद व्याख्या की है। उसमें सर्वप्रथम प्रकृतिबन्ध का स्वरूप बताते हुए लिखा है कि स्वभाव को ही प्रकृति कहते हैं अर्थात् जिस कर्म का जैसा स्वभाव है वही उसकी प्रकृति है। अपने-अपने स्वभाव के अनुसार आत्मा के साथ एकमेक होना ही प्रकृति बन्ध कहलाता है। प्रकृति बन्ध के 8 . भेद हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय।' जो आत्मा के ज्ञान गुण को ढक लेता है प्रकट नहीं होने देता वह ज्ञानावरण कर्म कहलाता है। जैसे किसी प्रतिमा पर कपडा डाल देने से प्रतिमा ढक जाती है। जो भावसंग्रह गाथा 324,325 भावसंग्रह गाथा 339, त. सू. 8/3 त. सू. 8/4, भा. सं. गा. 330 41 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org