________________ अन्य शरीर में प्रवेश करता है। इनके अनुसार यह जीवात्मा 21 प्रकार के दु:खों की अत्यन्त रूप से निवृत्ति होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। गौतम ऋषि स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि मिथ्याज्ञान के नष्ट होने पर रागद्वेषादि भावों का भी नाश हो जाता है, उससे प्रवृत्ति का अभाव हो जाता है; तदनन्तर पुनर्जन्म और द:खों का अभाव हो जाने से मुक्ति की प्राप्ति हो जाती है। मीमांसा दर्शन - नैयायिकों की तरह ही मीमांसक भी आत्मा का स्वरूप शरीरादि से / भिन्न और एक द्रव्य स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार जो जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाता है और जो उस लोक से लोकान्तर जाती है वह जीवात्मा ही है। भाट्टमत में कहा गया है कि भोगायतनभूत शरीर, भोग के साधन, इन्द्रियाँ और भोग्य इन्द्रियविषय, इनका सम्पूर्ण रूप से नाश हो जाना मोक्ष है। भट्टमीमांसक के अनुसार प्रपञ्च और सम्बन्ध का विलय हो जाना ही मोक्ष है और प्रभाकर के अनुसार धर्म और अधर्म का सम्पूर्ण रूप से विनाश होने पर देह का आत्यन्तिक विनाश होना ही मोक्ष है। मुक्त जीव को अविनाशी, परम सुखी, बन्ध के कारणों से पराङ्मुख कहा गया है। सांख्य दर्शन - इनके अनुसार तीन तत्त्व हैं - व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ। इनमें व्यक्त और अव्यक्त जड़स्वरूप हैं तथा ज्ञ चैतन्यस्वरूप पुरुष है। वह पुरुष अहेतुमान, नित्य, सर्वव्यापी और त्रिगुणातीत होने से निष्क्रिय भी हैं। इनके अनुसार शुद्धस्वरूप पुरुष तो एक ही है, परन्तु बद्धपुरुष अर्थात् सांसारिक पुरुष बहुपने को प्राप्त हैं, क्योंकि सांसारिक पुरुषों में जन्म-मरण का और इन्द्रियों के नियत और विभिन्न स्वरूप हैं तथा उनकी प्रवृत्ति भी पृथक्-पृथक् है तथा सत्त्व, रज एवं तमस में भी विषमता पायी जाती है। यदि ऐसा न माना जाय तो एक ही पुरुष का जन्म और एक का ही मरण होगा। इनके अनुसार बद्ध जीवात्मा (सांसारिक) अनादिकाल से ही बद्ध कर्म लिप्त हैं। यह बन्धन अविद्या के अनादि संयोग से है। इनमें पुरुष के तीन प्रकार प्ररूपित किये गये हैं। बद्ध, मुक्त और शुद्ध। ज्ञान से अविद्या का नाश करके विवेक बुद्धि को उत्पन्न करता है। विवेक बुद्धि प्राप्त होने पर पुरुष अपना निर्लिप्त और नि:संग स्वरूप को अनुभव करता है एवं ज्ञान के अतिरिक्त धर्मादि को कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है। पूर्वोपार्जित कर्मों न्यायसूत्रम् 1/1/2 मीमांसाश्लोकवार्तिकम् 1/5, शास्त्रप्रदीपिका 1/1/5 411 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org