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________________ वेद - वेदों की प्राथमिक अवस्था में देवों की उपासना स्तुति आदि से दु:ख की निवृत्ति जानकर इन्द्र वरुण आदि देवताओं को ही 'आत्म' रूप से स्वीकृत किया गया है। उपनिषदों के अध्ययन करने से ज्ञात होता है कि - जिस आत्मा का अन्वेषण करने में लोग अनुरक्त हैं, वह आत्मा देवों से सर्वथा भिन्न है, क्योंकि देवों में देवत्वशक्ति ब्रह्मा से प्राप्त हुई है। अतः आत्मा देवों से भिन्न (पृथक्) है। उपनिषद् - अलग-अलग ग्रन्थों में अलग-अलग रूप में आत्मा को स्वीकार किया गया। उनमें से बृहदारण्यकोपनिषद् में आत्मस्वरूप वर्णित करते हुए कहते हैं - यह आत्मा ब्रह्मविज्ञानमय, मन, प्राण, चक्षु, श्रोत्र, पृथ्वी, जल, धर्म, अधर्म और सर्वमय है।' इसी प्रकार कठोपनिषद् में कहते हैं - नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैव आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥ अर्थात् यह आत्मा जिसका वर्णन किया जा रहा है वह आत्मा न प्रवचन के द्वारा, न मेधा (बुद्धि) के द्वारा, न शास्त्रों के द्वारा लभ्य है, क्योंकि उसकी आत्मा तो उसके स्वयं शरीर में विद्यमान है, उसको बाहर खोजने पर वह कैसे प्राप्त हो सकती है। जिस प्रकार कस्तूरी मृग सुगन्ध को सारे वन में खोजता है, परन्तु उसको खोज नहीं पाता है, क्योंकि वह सुगन्ध तो स्वयं उसके नाभि से निस्सरित हो रही है। न्याय दर्शन - न्याय दर्शन के अनुसार जो ज्ञान का अधिकरण अर्थात् आधार रूप है, वही आत्मा है, वह आत्मा द्रष्टा, भोक्ता, सर्वज्ञ, नित्य और व्यापक है। सुख और दुःख में विचित्रता होने से प्रत्येक शरीर में जीवात्मा भिन्न है। वही उस शरीर के सुख-दु:ख का भोक्ता है। मुक्त अवस्था में भी स्वतन्त्र स्वभाव से ज्ञानशून्य होने के कारण जड़त्व स्वभाव वाला होता है। मन के संयोग से ज्ञान की उत्पत्ति होने से ज्ञान आत्मा में आने वाला आगन्तुक धर्म है। जीवात्मा के एक शरीर से दूसरे शरीर में प्रवेश करता है, तो वह ज्ञान सहित ही प्रवेश करता है, क्योंकि जीव के साथ संस्कार भी जाते हैं और मन भी बृहदारयकोपनिषद् 4/4/5 कठोपनिषद् 1/2123 न्यायभाष्यम् 1/1/9 410 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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