________________ आकार नहीं होता है। इस जीव के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, रूप, शरीर, संस्थान, संहनन, राग, द्वेष, मोह, आम्रव, कर्म, नोकर्म, वर्ग, वर्गणा, स्पर्द्धक, अध्यात्मस्थान, अनुभागस्थान, योगस्थान, बंधस्थान, विशुद्धिस्थान, संयमलब्धिस्थान, जीवस्थान, गुणस्थान आदि भी नहीं हैं, क्योंकि यह सब पुद्गलद्रव्य के परिणाम हैं।' __ इसी प्रकार आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी द्वारा वर्णित बृहद्र्व्य संग्रह में भी आत्मा का स्वरूप वर्णन नयापेक्षा की कसौटी में खरा उतरता है। वे कहते हैं कि जीव को नौ प्रकार के अधिकारों के अन्तर्गत परिभाषित विवेचित कर सकते हैं। जीवो उवओगमओ अमुत्तिकत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई।' अर्थात् यह जीव जीवत्व, उपयोगमय, अमूर्तिक, कर्ता, स्वदेहपरिमाण, भोक्ता, संसारस्थ, सिद्ध और स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करने वाला है, इस प्रकार ये जीव के नौ अधिकार हैं। ये नौ अधिकार के अन्तर्गत ही आत्मा को निश्चयनय की अपेक्षा से विशेष रूप से वर्णन किया है। इसका विशेष वर्णन पिछले अध्याय में कर चुके हैं। इसलिये यहाँ करना पुनरुक्ति दोष होगा। इसी प्रकार आचार्य योगीन्दुदेव भी निश्चयनय की अपेक्षा से शुद्धात्मा का स्वरूप बताते हुए कहते हैं अमणु अणिंदिउ णाणमउ मुत्ति-विरहिउ चिमित्तु। अप्पा इंदियविसउ णवि लक्खणु एहु णिरुत्तु।' अर्थात् यह शुद्ध आत्मा परमात्मा से विपरीत विकल्प जालमयी मन से रहित है, शुद्धात्मा से भिन्न इन्द्रिय समूह से रहित है, लोक और अलोक के प्रकाशित करने वाले केवलज्ञान स्वरूप है, अमूर्तिक आत्मा से विपरीत स्पर्श, रस, गंध, वर्ण वाली मूर्ति से रहित है, अन्य द्रव्यों में नहीं पाई जाने वाली शुद्धचेतना स्वरूप ही है और इन्द्रियों के समयसार गा. 49-55, तत्त्वसार गा. 20-22 बृ. द्र. सं. गा. 2 परमात्मप्रकाश दोहा 31 400 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org