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________________ संभव नहीं है।' निर्विकल्पक ध्यान की सिद्धि अप्रमत्त गुणस्थान में निर्ग्रन्थ दिगम्बर वीतरागी मुनि के ही संभव होती है। आचार्य वीरसेन स्वामी की अपेक्षा से कषाय रहित 11वें गुणस्थान में स्थित मुनिराज के ही संभव है, क्योंकि उनका आशय है कि ईषत् कषाय का उदय भी निर्विकल्प अवस्था की प्राप्ति में बाधक है। निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा निश्चयनय से आत्मा का वास्तविक स्वरूप प्रदर्शित करते हुए आचार्य कहते हैं दंसण-णाणपहाणो असंखदेसो हु मुत्तिपरिहीणो। सगहियदेहपमाणो पायव्वो एरिसो अप्पा अर्थात् निश्चय नय से आत्मा दर्शन और ज्ञान गुणप्रधान है, असंख्यात प्रदेशी है, अमूर्तिक है, अपने द्वारा गृहीत देहप्रमाण है। ऐसा स्वरूप आत्मा का वास्तविक स्वरूप है। आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी ने आत्मस्वरूप का विशद वर्णन किया है, उनमें कुछ विशेष आत्मस्वरूप का वर्णन इस प्रकार है .. अहमेक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइयो सदारूवी। णावि अस्थि मज्झ किंचिवि अण्णं परमाणुमेत्तंपि॥' अर्थात् दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप परिणत आत्मा यह जानता है कि निश्चय नय से मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शन ज्ञानमयी हूँ, सदा अरूपी हूँ, किञ्चित् मात्र भी अन्य परद्रव्य परमाणु मात्र भी मेरा नहीं है। इसी प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने और भी विशेष यह कहा है कि निश्चयनय से आत्मा से भिन्न कोई भी पदार्थ जीव का अपना नहीं है - यह जीव रसरहित, रूपरहित, गन्धरहित, अव्यक्त अर्थात् इन्द्रियगोचर नहीं ऐसा चेतना जिसका गुण है, शब्द रहित किसी चिह्न से अर्थात् इन्द्रिय से ग्रहण न होने वाला और जिसका कोई ज्ञानार्णव तत्त्वसार गा. 17 समयसार गा. 38 399 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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