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________________ और इन्द्रियों का परम निग्रह करने से ही शुद्ध होता है। जो मुनि पंच महाव्रतों के साथ गप्ति, समिति आदि का पालन करते हैं और पूर्णरूप से शीलव्रत का पालन करते हैं। समस्त कषायों को नष्ट कर देते हैं, समस्त जीवमात्र को अभयदान प्रदान करते हैं, ऐसे मुनि बिना किसी तीर्थजलस्नान के सदैव शुद्ध रहते हैं और उत्तरोत्तर कर्मों की निर्जरा करते हुए मोक्ष की प्राप्ति करते हैं। अतः तीर्थस्थानों के जल से शुद्धि को मानना सर्वथा विपरीत मिथ्यात्व है। इस प्रकार संक्षेप से तीर्थजलस्नान के दोष बतलाये, अब मांसभक्षण के दोष बतलाते हैं * 0 आचार्य कहते हैं कि जिनके मत में मांस-भक्षण को धर्म और मांस-भक्षण कराने से पितरों को तृप्ति होती है, ऐसी विपरीत मान्यता वालों को ये समझना चाहिये कि वे लोग नियम से अपने स्वजन और परिजनों को मारकर के खा जाते हैं, क्योंकि ये जीव मरकर चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं और जिन पितरों की तृप्ति के लिये ब्राह्मणों को मांसभक्षण कराया जाता है, संभवतः वे उन्हीं की आगामी पर्याय हो सकती है। यह जीव अपने कर्मों का फल अवश्य प्राप्त करता है और उसी के फलस्वरूप वह हिरण, बकरा, खरगोश, मछली आदि की पर्याय में भी उत्पन्न होता है। इन्हीं को मारकर पितरों . की तृप्ति की जाती है। इस प्रकार लोग अपने माता-पिता को स्वर्ग पहुँचाने के लिये उन्हीं की पर्यायों को मारकर ब्राह्मणों को भी खिलाते हैं और स्वयं भी खाते हैं। जिस प्रकार एक बक नामक व्यक्ति ने अपने ही पिता के श्राद्ध में अपने ही पिता के जीव हरिण को मारकर श्रोत्रियों को खिलाया था और स्वयं भी खाया था।' पहली बात यह है कि मांस खाने वाले पुरुष कभी भी दान देने के पात्र नहीं स्वीकार किये जा सकते। दूसरी बात यह है कि मांस का दान देना कभी भी दान नहीं कहला सकता। फिर उत्तम दान तो कदापि नहीं हो सकता। तीसरी बात दूसरे को भोजन कराने से अन्य पुरुष तृप्ति को प्राप्त नहीं हो सकता। जैसे देवदत्त के भोजन करने से यज्ञदत्त को तृप्ति कभी नहीं हो सकती है, वैसे ही किसी और को मांस खिला देने से स्वर्ग में बैठे पितरों की तृप्ति कैसे संभव है? भा. सं. गा. 21 भा. सं. गा. 30 वही गा. 31 368 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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