________________ इन पूजाओं के अलावा इन्द्र-प्रतीन्द्र, सामानिक आदि के द्वारा जो जिनपूजा की जाती है उसे ऐन्द्रध्वज पूजा कहते हैं। शेष जो कई प्रकार की पूजायें हैं उनका अन्तर्भाव इन्हीं पूजाओं में ही हो जाता है। इसी प्रकार वसुनन्दि आदि आचार्य पूजा के 6 भेद भी स्वीकार करते हैं जो इस प्रकार हैं - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव पूजा।' अब इन छहों भेदों को सामान्य से लक्षित करते हुए आचार्य कहते हैं कि - नाम पूजा - अरिहन्तादि के नाम का उच्चारण करके विशुद्ध स्थान पर पुष्प क्षेपण करना नाम पूजा कहलाती है। नामपूजा के अन्तर्गत परमपद में स्थित पंचपरमेष्ठी में से किसी भी परमेष्ठी, मुक्तात्मा अथवा मुक्ति की साधना में तल्लीन आत्मा का नाम स्मरणीय है। स्थापना पूजा - जिनेन्द्र भगवान् ने सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना यह दो प्रकार की स्थापना पूजा कही है। आकारवान् वस्तु में जो अरिहन्तादि के गुणों का आरोपण करना है वह पहली सद्भाव स्थापना पूजा है और अक्षत वराटक, सुपारी अथवा कमलगट्टा आदि में अपनी बुद्धि के अनुसार यह अमुक देवता है, ऐसा संकल्प करके उच्चारण करना ही असद्भाव स्थापना पूजा जानना चाहिये।' यहाँ आचार्य का यह आशय है कि - किसी विशिष्ट आकारवान् वस्तु में उसी आकार रूप व्यक्ति (देवता) की स्थापना करना सद्भाव स्थापना पूजा है। जैसे - मनुष्याकार पद्मासन प्रतिमा में यह भगवान् महावीर हैं ऐसा मानकर उसमें उनके गुणों का आरोपण करके पूजन करना अथवा फणयुक्त मनुष्याकृति में भगवान् पार्श्वनाथ मानकर पूजन करना सद्भाव स्थापना पूजा है। इसी प्रकार किसी भी आकार की वस्तु में अथवा आकार रहित वस्तु में किसी देवता की स्थापना करना असद्भाव स्थापना पूजा है। जैसे - गोल या चौकोर पत्थर में भगवान् महावीर की स्थापना करना अथवा चावल, - वसु. श्रा. गा. 382, गुण. श्रा. श्लोक 212 वसु. श्रा. गा. 382, गुण. श्रा. श्लोक 213 वसु. श्रा. 383-384, गुण. श्रा. 214-215 351 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org