________________ मत में कहे गये धर्म में लीन रहता है ऐसा पुरुष चाहे जितना घोर तपश्चरण करे तथापि वह कुत्सित पात्र या कुपात्र ही कहलाता है। आचार्य वसनन्दि लिखते हैं कि - जो व्रत, तप और शील से सम्पन्न है किन्तु सम्यग्दर्शन से रहित है वह कुपात्र है। आचार्य देवसेन स्वामी ने पात्र के भिन्न प्रकार से दो भेद किये हैं - वेदमय पात्र और तपोमय पात्र। ये ऐसे भेद हैं जो अन्य किसी भी आचार्य के द्वारा निरूपित नहीं किये गये। इनका प्रकटीकरण तो आचार्य देवसेन स्वामी की दार्शनिक दृष्टि से ही हुआ है। अब वेदमय पात्र कौन कहलाते हैं तो उनका स्वरूप कहते हैं वेद शब्द का अर्थ सिद्धान्त शास्त्र है, जो पुरुष सिद्धान्तशास्त्रों को तथा उसके अर्थ को जानता है, नौ पदार्थों के स्वरूप को, छहों द्रव्यों के स्वरूप को, समस्त गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीवस्थानों को जानता है, परमात्मा के स्वरूप को जानता है, जीवों का स्वभाव, कर्मों का स्वभाव और कर्म विशिष्ट जीवों का स्वभाव जानता है तथा इन सबका स्वरूप विशेष रीति से जानता है उसको वेदमय पात्र कहते हैं। अब तपोमय पात्र का क्या स्वरूप है यह बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि - जो पुरुष भगवान जिनेन्द्र देव के द्वारा कहे हुए बाह्य और आभ्यन्तर तपश्चरण के द्वारा अपना समय व्यतीत करता है तथा जो अपने ब्रह्मचर्य व्रत को दृढ़ता के साथ पालन करता है और सम्यग्ज्ञान को धारण करता है उसको तपोमय पात्र कहते हैं।' इस प्रकार वेदमय और तपोमय दो प्रकार के पात्रों का वर्णन हुआ। ये दोनों पात्र नियमपूर्वक संसार से पार कर देने वाले होते हैं। पात्र दान का फल एवं महत्त्व दान का महत्त्व सभी आचार्यों ने प्ररूपित किया है। ऐसे कोई भी आचार्य नहीं जिन्होंने दान के महत्त्व और फल पर प्रकाश न डाला हो। इस युग के आदि में भगवान भा. स. गा. 530 व. श्रा. 223 भा. स. गा. 505 भा. स. गा. 506-507 वही गा. 508 332 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org