________________ रूपस्थ रिष्ट - जहाँ रूप दिखाया जाय वह रूपस्थ रिष्ट है। यह छायापुरुष, स्वप्न दर्शन, प्रत्यक्ष, अनुमानजन्य और प्रश्न द्वारा देखा जाता है। इसके देखने की विधि एवं सभी प्रयोग 'रिष्ट समुच्चय' ग्रन्थ से जानना चाहिये। इस प्रकार इन रिष्टों से अपनी मृत्यु समीप जानकर अथवा अन्य अनेक प्रकारों से अपनी आयु की समाप्ति निकट जानकर आचार्य को अपने आचार्यादि पद एवं शिष्यों का त्याग करके अनेक गुणों से विभूषित सुयोग्य शिष्य को आचार्य पद देकर समस्त संघ को अनेक प्रकार की शिक्षा देकर निर्यापकाचार्य की खोज करना चाहिये। योग्य निर्यापकाचार्य आचारवान हो, बहुश्रुत का धारी हो, सर्वसंघ की वैयावृत्ति करने में समर्थ हो, रत्नत्रय के विनाश और उपाय को समझाने में निपुण हो, क्षपक के दोषों को बाहर निकालकर उसे निःशक्य बना देने वाला हो, आचार्य गम्भीर स्वभाव वाले हों। ऐसे योग्य निर्यापकाचार्य को प्राप्त कर उनके प्रति आत्मसमर्पण पूर्वक सल्लेखना के लिये याचना करना चाहिये। सल्लेखना दो प्रकार से होती है 1. काय सल्लेखना - आहार आदि का शरीर की स्थिति देखकर क्रम-क्रम से त्याग करके शरीर कृश करना काय सल्लेखना है। 2. कषाय सल्लेखना - संसार, शरीर और भोगों से विरक्त होते हुए जो कषायों को कृश किया जाता है, वह कषाय सल्लेखना कहलाती है। समाधिमरण - राग-द्वेष-मोह आदि भावों को मन से दूर करके भावों की विशुद्धि पूर्वक मरण करना समाधिमरण कहलाता है। इसी प्रसंग में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी लिखते हैं - वचनोच्चारण की क्रिया परित्याग करके वीतराग भाव से जो आत्मा को ध्याता है, उसे परम समाधि कहते हैं। संयम, नियम और तप से तथा धर्म्यध्यान और शुक्लध्यान से जो आत्मा को ध्याता है, वह परम समाधि है।' ऐसे चिन्तनपूर्वक समाधिमरण करने से भवों का अन्त होता है। अज्ञानी जीव शरीर द्वारा जीव का त्याग करते हैं और ज्ञानी जीव द्वारा शरीर का त्याग करते हैं। जीवन पर्यन्त किये गये तप का फल निर्दोष, निरतिचार समाधि है। अन्तिम समय में जितनी विशुद्धि, दृढ़ता, आत्म-लीनता, राग-द्वेष निवृत्ति, संसार नियमसार गा. 122-123 312 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org