________________ के बाद क्या है? इसके बारे में हम निश्चित रूप से कुछ नहीं जानते और हमें जीवन में कहाँ से किस तरह प्रवेश करना चाहिये, सो भी हम नहीं जानते। मरण के लिये तैयारी करना जितना आसान और स्ववश है, उतना शायद जीवन-प्रवेश की तैयारी करना आसान नहीं है। पता नहीं, कैसे हम यकायक जीवन में प्रवेश करते हैं। इसी तरह पता नहीं. कैसे मृत्यु हमें एक क्षण में घेर लेती है। कठोपनिषद् में यमराज कहते हैं कि मरण के बाद मनुष्य यथाकर्म, यथाश्रुतं और यथाप्रज्ञा नये जीवन में प्रवेश करता है। इस जीवन में हम जैसे कर्म करते हैं, प्रयोग और चिन्तन के द्वारा जैसे अनुभव और ज्ञान बढ़ाते हैं, उसी तरह का नया जन्म हमें मिलता है। जन्म होने के पश्चात् मृत्यु होना अवश्यंभावी है। जिन महापुरुषों ने मरण की यथार्थता को आत्मसात् कर लिया है, उन्होंने मरण को मृत्यु महोत्सव कहा है। मृत्यु की विलक्षणता का समीचीन दिग्दर्शन जैनदर्शन कराता है। यह जिस प्रकार जीवन के मार्ग को प्रशस्त बनाता है, उसी प्रकार मरण के मार्ग को भी प्रशस्त बनाता है। मरण की इसी प्रशस्तता का अपर नाम सल्लेखना अथवा समाधिमरण है। सल्लेखना शब्द दो शब्दों के मेल से बना है - सत् + लेखना - सल्लेखना। अर्थात् अच्छी प्रकार से देखना। किसको? अपनी आत्मा को। अपनी आत्मा को अच्छी प्रकार से लखने के लिये किसी प्रकार के उपसर्ग आ जाने पर, असाध्य रोग हो जाने पर, दुर्भिक्ष हो जाने पर, बुढ़ापा आ जाने पर धर्म की रक्षा के लिये शरीर का त्याग करना सल्लेखना है।' आत्मा और धर्म के हित के लिये शरीर और कषाय को कृश करना सल्लेखना है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी लिखते हैं कि - 'सम्यक्कायकषायलेखना, कायस्य बाह्याभ्यन्तराणां कषायाणां तत्कारणाहापनक्रमेण सम्यग्लेखना सल्लेखना" अर्थात् सम्यक् प्रकार से काय और कषाय को कृश करने का नाम सल्लेखना है। बाह्य और आभ्यन्तर अर्थात् शरीर और रागादि कषायों को, उनके कारणों को क्रमशः कम करते हुए स्वेच्छा पूर्वक कुश करने का नाम सल्लेखना है। र. श्रा. 122 स. सि. 7/22 308 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org