________________ जानने और समझने का अवसर उसको यहाँ प्राप्त होता है। धर्म धार्मिक के बिना नहीं रह सकता, इसलिये धार्मिक की रक्षा करना गृहस्थ का परम कर्तव्य है। 4. सल्लेखना - भगवान् जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित छह द्रव्यों में जीव द्रव्य सर्वोपरि है, क्योंकि वह चैतन्य गुण से उपलक्षित है। अनन्तानन्त जीवों में अनन्त जीव तो समीचीन पुरुषार्थ से शुद्धात्मानुभूति के अवलम्बन से अपने स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं, किन्तु टंकोत्कीर्ण ज्ञायक स्वभावी होते हुए भी अनन्तानन्त जीव स्वभाव की श्रद्धा के अभाव में संसार रूपी चक्की के जन्म-मरण रूपी दो पाटों के बीच अनादि काल से पिसते चले आ रहे हैं। जीवन और मरण मिलकर के विशाल जीवन-संस्था बनती है। शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष मिलकर मास होता है। परिश्रम और विश्राम मिलकर प्रवृत्ति बनती है। प्रवृत्ति और निवृत्ति मिलकर जीवन साधना बनती है। मौन और वाणी मिलकर मानवीय सम्पर्क बनता है। प्रयोग और चिन्तन मिलकर ज्ञानवृत्ति होती है। जागृति और नींद मिलकर शारीरिक व्यापार सफल बनता है। श्वास और उच्छ्वास मिलकर प्राणों का व्यापार चलता है। इसी तरह जीवन और मरण दोनों की युगल रचना है। . 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्धवं जन्म मृतस्य च' इस नीत्यनुसार जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु अवश्य है और जिसकी मृत्यु होती है उसका जन्म अवश्यंभावी है। आयुक्षय के कारण प्राप्त होने पर शरीर अथवा दश प्राणों का विनाश हो जाना मृत्यु है और आयु कर्म के उदयवशात् मनुष्य आदि स्थल व्यञ्जन पर्यायों में दश प्राणादि के साथ जीव का आविर्भाव होना जन्म है। अनादिकाल से अब तक की पर्यायों के जन्म-मरण की संख्या यदि निकालें तो अनन्तानन्त से कम तो नहीं होगी। 'अतिपरिचितेष्ववज्ञा नवे भवेत् प्रीतिरित' इस नीत्युनसार जन्म-मरण की अतिपरिचित क्रियाओं में अवज्ञा होना चाहिये थी, किन्तु नहीं हुई, यह महान् आश्चर्य है। 'मरणं प्रकृतिः शरीरिणाम्' अर्थात् मरण देहधारियों का स्वभाव है और "स्वभावोऽतर्कगोचरः' स्वभाव में तर्क नहीं चलता, फिर मरण से भय क्यों? हमारा ध्यान जीवन पर केन्द्रित रहता है, इसलिये मरण के विषय में हम अनभिज्ञ और घबराये हुए रहते हैं। ऐसा नहीं होता तो जिस आस्था से, पुरुषार्थ से और कौशल से हम जीवन की तैयारी करते हैं, उसी उत्कटता से मरण की भी तैयारी करते। यह बात सही है कि मृत्यु 307 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org