________________ शब्द में मात्र चार दानों का समावेश होता है और वैयावृत्य में दान और सेवा-सुश्रूषा आदि सबका समावेश हो जाता है, इसलिये उन्होंने 'वैयावृत्य' इस व्यापक शब्द को स्वीकृत किया है। चौथे भेद में ही कई विप्रतिपत्तियाँ हैं। आचार्य उमास्वामी ने जहाँ भोगपरिभोगपरिमाण व्रत स्वीकार किया है, वहीं आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने देशावकाशिक व्रत ग्रहण किया है। आचार्य देवसेन स्वामी और आचार्य वसुनन्दि ने एक समान सल्लेखना को ग्रहण किया है और चारों शिक्षाव्रत एक समान माने हैं। आचार्य देवसेन स्वामी ने शिक्षाव्रत के ये चार भेद स्वीकार किये हैं - सामायिक, प्रोषधोपवास, अतिथिसंविभाग और सल्लेखना।' 1. सामायिक व्रत - एकाग्रचित्त होकर पञ्चपरमेष्ठी, जिनवाणी, जिनधर्म, जिनबिम्ब, जिनचैत्य आदि की प्रातः, मध्याह्न और संध्या काल में स्तुति, वन्दना अथवा चिन्तन करना सामायिकव्रत कहलाता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी सामायिक का स्वरूप बताते आसमयमुक्तिमुक्तं पञ्चाघानामशेष भावेन। सर्वत्र च सामयिकाः सामायिकं नाम शंसन्ति॥' अर्थात् परम साम्यभाव को प्राप्त श्री गणधर देव मर्यादित तथा मर्यादा बाह्य क्षेत्र में भी समस्त मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना द्वारा नियमित काल पर्यन्त पञ्च पापों के त्याग को 'सामायिक' कहते हैं। सामायिक शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए आचार्य कहते हैं 'सम' उपसर्ग का अर्थ एकरूप है, जैसे - घी, तेल संगत है, संगत का अर्थ एकीभूत। सामायिक में मूल शब्द 'समय' है, जिसका अर्थ है एक साथ जानना एवं गमन करना अर्थात् एकरूप हो जाना ही जिसका प्रयोजन है वह सामायिक है।' पं. आशाधर जी इसी सन्दर्भ में कहते हैं 'सम' का अर्थ राग-द्वेष रहित मध्यस्थ आत्मा है। उसमें आय अर्थात् उपयोग की प्रवृत्ति वह समाय है। वह समाय ही जिसका प्रयोजन है उसे भा. सं. गा. 355 र. श्रा. 97 स. सि. 7/21, रा. वा. 9/18/1, चा. सा. 19/1 303 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org