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________________ अचौर्याणुव्रत में वारिषेण प्रसिद्ध हुए हैं। इस व्रत के अतिचारों का वर्णन करते हए आचार्य कहते हैं - चोरी के उपाय बताना, चोरी किये गये सामान को खरीदना, राज्य अथवा सरकार के विपरीत कार्य करना, लेते में ज्यादा और देते में कम तौलना और कम दाम की वस्तु को अधिक दाम की वस्तु में मिलाकर बेचना आदि। इन अतिचारों से बचकर ही श्रावक निर्दोष अचौर्याणुव्रत का पालन कर सकता है। 4. ब्रह्मचर्याणुव्रत - स्थूल रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करना अर्थात् अपनी पत्नी के अलावा अन्य समस्त नारियों के प्रति विरक्त भाव रखना ब्रह्मचर्याणुव्रत कहलाता है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी कहते हैं कि - 'न तु परदारान् गच्छति न परान् गमयति च पापभीतेर्यत् सा परदारनिवृत्तिः स्वदारसंतोषनामापि।' ' अर्थात् जो पाप के भय से परस्त्रियों के प्रति न तो स्वयं गमन करता है और न दूसरों को गमन कराता है, वह परस्त्री त्याग अथवा स्वदारसंतोष नामक अणुव्रत कहा गया है। आचार्य वसनन्दि कहते हैं कि अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टाह्निका, दशलक्षण आदि शाश्वतपर्वो के दिनों में स्त्रीसेवन और सदैव अनंगक्रीडा का त्याग करने वाले साधक को जिनशासन में जिनेन्द्र भगवान् ने स्थूल ब्रह्मचारी कहा है। ब्रह्मचर्य शब्द ब्रह्म और चर्य इन दो शब्दों के मेल से बना है। ब्रह्म शब्द की निष्पत्ति बृंह धातु से हुई है और चर्य शब्द की चर् धातु से हुई है। आत्मा, आत्मा के द्वारा, आत्मा के लिये, आत्मा में जो चर्या करता है, वह निश्चय से ब्रह्मचर्य है और इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त करने के लिये इन्द्रिय विषयों एवं विकारी भावों से दूर हटना व्यवहार ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य की महिमा का गुणगान करते हुए आचार्य कहते हैं कि जो परस्त्री का त्याग कर देता है और अध्यात्म पथ की ओर बढ़ने के लिये सतत प्रयत्न करता है, ऐसा भव्यजीव लौकिक एवं पारलौकिक सुख को प्राप्त करता है। ब्रह्मचर्य से संयम निर्दोष पलता है, आत्मसाधना निर्विघ्न होती है, जिससे कर्मों का नाश करके मोक्ष की प्राप्ति होती है। ब्रह्मचर्याणुव्रत के पालन करने में नीली प्रसिद्धि को प्राप्त हुई हैं। र. श्रा. 58 वसु. श्रा. गा. 210, गुण. श्रा. 136 297 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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