________________ वधादसत्याच्चौर्याच्च कामाद् ग्रन्थान्निवर्तनम्। पञ्चधाणुव्रतं राज्यभुक्तिः षष्ठमणुव्रतम्॥' इसी प्रकार अणुव्रतों के पाँच भेदों का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं हिंसाविरई सच्चं अदत्तपरिवज्जणं च थलवयं। परमहिलापरिहारो परिमाणं परिग्गहस्सेव॥' अर्थात् त्रस जीवों की हिंसा का त्याग करना, सत्य बोलना, बिना दिये हुए पदार्थ को कभी ग्रहण न करना, परस्त्री सेवन का त्याग और परिग्रह का परिमाण करना ये पाँच अणुव्रत हैं। 1. अहिंसाणवत - सङ्कल्पपूर्वक मन, वचन और काय एवं कत. कारित. अनुमोदना से युक्त होकर त्रस जीवों की हिंसा नहीं करना और बिना प्रयोजन स्थावर जीवों को भी नहीं मारना, अहिंसाणुव्रत कहलाता है। इसको स्थूलव्रत भी कहा जाता है। इसी स्वरूप को पं. दौलतरामजी ने अतिसंक्षेप में कहा है - त्रसहिंसा को त्याग वृथा थावर न संघारे'। अहिंसाणुव्रत के पालन में सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करने का उपदेश देते हुए आचार्य सोमदेव उपासकाध्ययन में लिखते हैं - 'गृहकार्याणि सर्वाणि दष्टिपतानि कारयेत' अर्थात घर के सभी काम अच्छी प्रकार से देखकर सावधानी पूर्वक करना चाहिये। आसन, शैय्या, मार्ग, अन्न तथा अन्य जो भी वस्तु हो, उसका उपयोग अच्छी तरह देखभाल करके करना चाहिये, क्योंकि गृहस्थाश्रम आरम्भ के बिना सम्भव नहीं है और आरम्भ हिंसा के बिना नहीं होता है। इसलिये संकल्पी हिंसा इच्छापूर्वक छोड़ना चाहिये। जीविका मूलक कृषि आदि के आरम्भ से उत्पन्न हिंसा को छोड़ना शक्य नहीं है। अहिंसाणुव्रत के पालन करने में यमपाल चाण्डाल आचार्यों का प्रशंसनीय रहा है। अहिंसाणुव्रत के पाँच अतिचारों का वर्णन आचार्य उमास्वामी और आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने सर्वप्रथम किया है, वे हैं - बन्ध, वध, छेद, अतिभारारोपण और चारित्रसार भा. सं. गा. 353 कार्ति. गा. 338, रत्नक. श्रा. 53, पु. सि. 75, व. श्रा. 209, सा. ध. 4/7 294 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org