________________ पर शुद्ध निर्मल स्वरूप का प्रतिभास और क्रमशः संवर, निर्जरा और मोक्ष की प्राप्ति होती है। ऐसे ही कई मंत्र हैं जो कि पञ्च परमेष्ठी के ही द्योतक हैं। वैसे पंच परमेष्ठी का द्योतक 'ओम्' पद भी है, जिसमें पाँचों परमेष्ठी समाहित हैं। वह इस प्रकार हैं अरहंता असरीरा आइरिया तह उवज्झया मणिणो। पदमक्खर णिप्पणो ओंकारो पंचपरमेट्ठी॥ >> अर्थात् अरहंत का अ, अशरीरा अर्थात् सिद्ध का अ, आचार्य का आ, उपाध्याय का उ और मुनि का म, ये सब पाँचों के प्रथम अक्षर हैं। इनको जोड़ने पर अ + अ + आ + उ + म् = ओम् बन जाता है। इस प्रकार 'ओम्' पञ्च परमेष्ठी का प्रतीक है। पदस्थ ध्यान में इसका भी अच्छी तरह से अभ्यास किया जा सकता है। 3. रूपस्थ ध्यान - अपने शरीर में स्थित शुद्ध, निर्मल और अत्यन्त दैदीप्यमान आत्मा और शुद्ध स्वभाव आत्मा का ध्यान करना रूपस्थ ध्यान कहलाता है। इसके स्वरूप को और स्पष्ट करते हुए आचार्य वसुनन्दि कहते हैं कि - जिसके शरीर की प्रभा आकाश एवं स्फटिक के समान स्वच्छ एवं निर्मल है, ऐसी महानिधि में निमग्न मनुष्य और देवों के मुकुटों में लगी हुई मणियों की किरणों से अनुरंजित हैं चरण कमल जिनके ऐसे तथा श्रेष्ठ अष्ट प्रातिहार्यों से युक्त, समवसरण के मध्य में स्थित परम अनन्त चतुष्टय से सहित, आकाश में स्थित अरहन्त भगवान के स्वरूप का अवलम्बन लेकर जो ध्यान किया जाता है उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं। अथवा ऐसे ही उपर्युक्त वर्णन से सहित परन्तु समवसरणादि परिवार से रहित और क्षीरसागर के मध्य में स्थित अथवा उत्तम क्षीर के समान धवल वर्ण के कमल की कर्णिका के मध्य प्रदेश में स्थित, क्षीर सागर के * से धवल हो रहा है समस्त अंग जिनका, ऐसे अरहन्त परमेष्ठी के स्वरूप का ध्यान किया जाता है उसे रूपस्थ ध्यान कहा जाता है। आचार्य देवसेन स्वामी ने रूपस्थ ध्यान के दो भेद किये हैं - एक स्वगत आत्मा का ध्यान और दूसरा परगत आत्मा का ध्यान। जहाँ पर पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान / भा. सं. गा. 623 वसु. श्रा. 472-475 274 Jain Education International For Personal & Private Use Only www ainelibrary.org