________________ आचार्य अकलंक स्वामी ने धर्म्यध्यान के दस भेद भी कहे हैं जो इस प्रकार है-अपाय विचय, उपाय विचय, जीव विचय, अजीव विचय, विपाक विचय, विराग विचय, भव विचय, संस्थान विचय, आज्ञा विचय और हेतु विचय।' आचार्यों ने और भी प्रकार से धर्म्य ध्यान के भेदों का निरूपण किया है। जिनमें श्री चामुण्डराय जी ने दो भेदों का उल्लेख किया है बाह्य और आध्यात्मिका निश्चय और व्यवहार के भेद से भी धर्म्य ध्यान दो प्रकार का स्वीकार किया गया है और उत्कृष्ट, मध्यम एवं जघन्य के भेद से तीन प्रकार का भी स्वीकार किया गया है। दो भेदों के क्रम में एक भिन्न मत उपलब्ध होता है - मुख्य और उपचार।' दो भेदों को अलग से आचार्य देवसेन स्वामी ने भी स्वीकार किया है-एक आलम्बन सहित, दूसरा आलम्बन रहित।' , यहाँ पर अभी जो सर्वसम्मति से सभी आचार्यों ने चार भेद स्वीकार किये हैं उनके स्वरूप को प्रदर्शित करते हैं, शेष भेदों की चर्चा आगे करेंगे। 1. आज्ञा विचय धर्म्य ध्यान - जैन सिद्धान्त ऐसा है जैसा केवली भगवान के द्वारा प्ररूपित किया गया है जैसे छह द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, तत्त्व के अनन्त गुण पर्याय सहित त्रयात्मक त्रिकाल गोचर सर्वज्ञ देव के द्वारा कहा गया धर्म इन सबका इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होकर यह भगवान् की आज्ञा है ऐसा प्रमाण मानकर चिन्तन करता है उसे आज्ञा विचय धर्म्य ध्यान कहते हैं। यहाँ आज्ञा का अभिप्राय यह है कि विषय को अच्छी प्रकार से जानकर उसके अनुरूप आचरण करना। अन्धानुकरण भी यहाँ नहीं होना चाहिये। यहाँ इसका अभिप्राय है - सर्वज्ञ देव की आज्ञा से और विचय का अर्थ होता है विचार अथवा चिन्तन। इस ध्यान में सर्वज्ञ केवली के द्वारा कहे गये तत्त्व का चिन्तन अथवा विचार किया जाता है कि सर्वज्ञ का उपदेश त्रुटिरहित, संशय रहित, सत्य वचन योग रूप और हमारे हितकारी हैं, क्योंकि सर्वज्ञ का ज्ञान प्रत्यक्ष है, साक्षात् आत्मा से होता है और वे वीतरागी होते हैं। इसलिये वह निष्पक्ष रूप से तत्त्वों का व्याख्यान करते त. वा. 1/7/14 चारित्रसार 172/3 तत्त्वानुशासनम् 47-49,96 भा. सं. गा. 374 ज्ञाना. 33/7, भा. सं. गा. 367 257 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org