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________________ भोगता हुआ भी धर्म्यध्यान को धारण करने की प्रबल इच्छा करता है इसलिये उसको प्रध्यान कहा गया है। शर्य ध्यान - वस्तु का स्वभाव धर्म कहा जाता है। जीव का स्वभाव आत्मानन्द है अर्थात आत्मा से उत्पन्न होने वाला आनन्द जो कि अमृत के समान होता है न कि इन्द्रियों से उत्पन्न होने वाला सुख। यह अतीन्द्रिय आनन्द ही जीव का धर्म है। इस धर्म से युक्त भाव को धर्म्य कहते हैं। इस प्रकार के धर्म से युक्त ध्यान को धर्म्यध्यान कहते हैं। राग-द्वेष की जड़ हैं ऐसे समस्त पदार्थों को तजकर मोक्षमार्ग में स्थित साधक/श्रावक के द्वारा समता का अभ्यास करने के लिये किया गया ध्यान धर्म्य ध्यान कहलाता है।' इसी सन्दर्भ में आचार्य देवसेन स्वामी भी धर्म्यध्यान का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि - जो सभी पदार्थों में मुख्य पदार्थ है उस आत्मा अर्थात् जीव के शुद्ध स्वरूप का ध्यान करना धर्म्य ध्यान कहा जाता है। एक परिभाषा दूसरे प्रकार से भी देते हुए कहते हैं कि - सिद्धान्त सम्बन्धी ग्रन्थों में उत्तम क्षमा आदि दस प्रकार का धर्म बतलाया है, उन दसों प्रकार के धर्मों का चिन्तवन करना भी धर्म्यध्यान कहा जाता है।' - कुछ आचार्यों ने बारह भावनाओं, दशलक्षण धर्म, साधु के गुणों का कीर्तन, वनय, दान सम्पन्नता, श्रुत-संयम-शील आदि से रति, इन सबका ध्यान करना भी धर्म्य ध्यान कहा है। धर्म्य ध्यान के भेद - प्रायः सभी आचार्यों ने धर्म्यध्यान के चार भेद प्ररूपित किये हैं, जो निम्न हैं 1. आज्ञा विचय धर्म्यध्यान 2. अपाय विचय धर्म्यध्यान 3. विपाक विचय धर्म्यध्यान 4. संस्थान विचय धर्म्यध्यान स. सि. 9/36/4 ज्ञाना. 33/1-2 भा. सं. गा. 372-373 त. सू. 9/36, ज्ञाना. 33/5 256 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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