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________________ सतत पापरूप अशुभ कर्मों का बन्ध किया करता है और इसी के द्वारा कोई भी व्यक्ति तिर्यञ्च पर्याय को भी प्राप्त करता है।' __ इन चारों आर्त ध्यानों में इष्ट वियोगज, अनिष्ट संयोगज और पीड़ा जनित ये तीनों पहले गुणस्थान से लेकर छठवें गुणस्थान तक के जीवों के होते हैं और निदान नामक चतुर्थ आर्तध्यान पहले गणस्थान से पाँचवें गुणस्थान तक के जीवों के ही होता , यहाँ कोई प्रश्न करता है कि क्या मुनि कभी निदान नहीं करते हैं या उनके नहीं होता है। तो इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि यदि कोई प्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनि निदान करता है तो उसका तुरन्त गुणस्थान गिर जाता है और वह एक से पाँच गुणस्थानों में से किसी एक में आ जाते हैं। इस प्रकार 6वें गुणस्थान में निदान आर्तध्यान सम्भव नहीं है। इस प्रकार प्रथमतया यह आर्तध्यान रमणीय प्रतीत होता है फिर भी अन्तिम समय में कुपथ्य के रूप में यह अप्रशस्त ध्यान छोड़ने योग्य ही है। 2. रौद्रध्यानम् - रुद्र का अर्थ क्रूरता होता है। इसमें होने वाले भाव को रौद्र कहते हैं और क्रूरता के आशय से उत्पन्न होने वाले ध्यान को रौद्र ध्यान कहते हैं।' आवश्यकचूर्णि में रौद्रध्यान का स्वरूप वर्णित करते हुए लिखा है कि 'हिंसाणुरंजितं रौद्रं" अर्थात् हिंसा से अनुरंजित (लथपथ अथवा सने हुए) भावों को रौद्र ध्यान कहते हैं। आचार्य देवसेन स्वामी उद्धत करते हैं कि - जीव की अत्यन्त तीव्रता के साथ कषायें जब होती हैं तो उन भावों को रौद्र ध्यान कहते हैं। यहाँ आचार्य का आशय यह है कि कषाय का उदय तो प्रत्येक संसारी जीव के होता है परन्तु जिसके कषाय का अत्यधिक तीव्र उदय रूप परिणाम होते हैं वे रौद्रध्यान कहलाते हैं। अन्य प्राणियों को रुलाता हुआ सभी प्राणियों में रुद्र, 'कर, निर्दय कहलाता है। ऐसे ही जीवों के जो ध्यान भा. सं. 360 स. सि. 9/28 आव. चू. भाग 2, पृ. 82 भा. सं. गा. 361 252 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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