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________________ वेदनाजन्य आर्तध्यान कहलाता है।' जीवों के शरीर में तीन प्रकार से रोग उत्पन्न होते हैं वे हैं - वात, पित्त और कफ तथा और भी अन्य प्रकार से उत्पन्न हुए रोगों के माध्यम से उत्पन्न प्राणान्त पीडा का प्रबल उदय आने पर श्वास, भगन्दर, जलोदर, क्षयरोग, अतिसारादि रोगों के उत्पन्न होने पर जीव को व्याकुलता अथवा क्लेश के निवारण के लिये जो बार-बार चिंतन करना अथवा रोगजन्य दु:ख के विषय में बार-बार चिन्तन करना वेदनाजनित आर्त ध्यान कहलाता है। भावि काल में यह ध्यान पाप बन्ध का कारण दर्निवार और महान द:खों का कारण होता है। स्वप्न में भी किसी भी प्रकार के रोग की उत्पत्ति न हो ऐसा बार-बार चिन्तन करता रहता है।' (iv) निदान आर्तध्यान - पूर्व में किये गये पुण्यार्जन अथवा प्रभु भक्ति के बदले इस लोक और परलोक के लिये सांसारिक भोग्य वस्तुओं की प्राप्ति के विषय में बार-बार चितवन करना निदान नामक चतुर्थ आर्तध्यान कहलाता है। यह जीव तीव्र वासना के कारण वर्तमान में तीव्र वेदना को सहन करके बड़े-बड़े तप करता है, वह भी मात्र आगामी समय में मनवाञ्छित सुख की इच्छा की पूर्ति के लिये बार-बार चिन्तवन करता रहता है, वह निदान कहा जाता है ऐसा आचार्यों का मत है। इस प्रकार संक्षेप से आर्तध्यान का स्वरूप प्रतिपादित किया है। ये चारों ही आर्तध्यान कृष्ण, नील और कापोत लेश्या से रंजित रहते हैं। ये चारों ही आर्तध्यान अज्ञानमूलक, पाप बन्ध के आयोजन में तीव्र पुरुषार्थ उत्पन्न करने वाले, अनेकों प्रकार के विषयों की प्राप्ति में आकुलित, धर्म भाव का त्याग कराने में समर्थ, कषाय भावों से युक्त, अशान्ति में वृद्धि करने वाले, अशुभ कार्यों में प्रवृत्ति कराने वाले, कटुक फल प्रदान करने वाले, असाता कर्म का बन्ध कराने में सक्षम और तिर्यग्गति आदि का बन्ध कराने में सहायक होते हैं। आचार्य देवसेन स्वामी ने इन्हीं सब विषयों को अतिसंक्षेप रूप से एक ही गाथा में समेटकर वर्णित किया है कि इस आर्तध्यान के करने से यह जीव त. सू. 9/32, भा. सं. 359 ज्ञाना. 25/32 त. सू. 9/33 251 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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