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________________ ध्यानमेकाग्रचिन्ताया घनसंहननस्य हि। निरोधोऽन्तर्महर्तं स्याच्चिन्ता स्यादस्थिरं मनः॥' अर्थात् उत्तम संहनन के धारक पुरुष की चिन्ता का किसी एक पदार्थ में अन्तर्मुहूर्त के लिये रुक जाना सो ध्यान है और चिन्ता का अर्थ चञ्चल मन है, अर्थात् चिन्ता की स्थिति में मन की स्थिरता नहीं बन पाती है। जैसे बाहबलि भगवान के मन में स्थिरता नहीं आ पाने के कारण ही वह एक वर्ष तक निश्चल खड़े रहे, कई परीषहों को सहन किया परन्तु वह अविचल, स्थिर अन्तर्मुहूर्त का ध्यान नहीं हो पाने के कारण केवलज्ञान की प्राप्ति नहीं कर पाये थे और बाद में जैसे ही चित्त में एकाग्रता आई ध्यान की सिद्धि हुई और केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। आचार्य कुन्दकुन्दस्वामी ध्यान की विशेषता बताते हुए कहते हैं कि - यथार्थ वस्तु को सामान्य देखने और विशेषतापूर्वक जानने से परिपूर्ण परद्रव्य चिन्ता का निरोध रूप ध्यान कर्मबन्ध स्थिति की अनुक्रम परिपाटी से खिरने का कारण होता है। आत्मीक स्वभाव संयुक्त साधु महामुनि के होता है। परद्रव्य के सम्बन्ध से रहित है। इसी प्रकार ध्यान का स्वरूप बताते हुए पं. आशाधर जी लिखते हैं कि- .. इष्टानिष्ठार्थ मोहादिच्छेदाच्चेतः स्थिरं ततः। ध्यानं रत्नत्रयं तस्मात् मोक्षस्ततः सुखम्॥' इष्ट-अनिष्ट की बुद्धि के मूल मोह का छेद होने से चित्त स्थिर हो जाता है। उस चित्त की स्थिरता को ध्यान कहते हैं। वह ध्यान रत्नत्रय की प्राप्ति कराता है और उससे मोक्षरूपी सख को प्राप्त करता है। आचार्यों ने ध्यान को मोक्ष का साक्षात कारण बताया है, क्योंकि सीधा कर्म रूपी मैल को ध्यान जला डालता है, इसीलिये ध्यान को अग्नि की उपमा दी गई है। श्वेताम्बर आगम में भी ध्यान का स्वरूप इसी प्रकार ही बताया है, उनके द्वारा प्रतिपादित स्वरूप में भी एकाग्रता ही ध्यान का लक्षण है। आचार्य ध्यान का स्वरूप निरूपित करते हुए कहते हैं हरिवंशपुराण 56/3 पञ्चास्तिकाय गा. 152 अन. ध. श्लो. 114 244 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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