________________ का परिणाम स्थिर होता है उसे ध्यान कहते हैं और चञ्चल रहता है उसे अनुप्रेक्षा, चिन्ता, भावना अथवा चित्त कहते हैं। यह ध्यान छद्मस्थ अर्थात् प्रथम गुणस्थान से 12वें गणस्थान तक के जीवों के होता है। 13वें गणस्थानवर्ती सर्वज्ञ देव के भी योग के बल से होने वाले आस्रव का निरोध करने के लिये उपचार से ध्यान माना जाता है।' ध्यान के समानार्थक शब्दों को भी यहाँ वर्णित करते हुए लिखते हैं कि - योग, ध्यान, समाधि, धीरोध अर्थात् बुद्धि की चञ्चलता रोकना, स्वान्त-निग्रह अर्थात् मन को वश में करना और अन्त:संलीनता अर्थात् आत्मा के स्वरूप में लीन होना आदि सब ध्यान के पर्यायवाची शब्द हैं, ऐसा विद्वान् लोग मानते हैं। आत्मा जिस परिणाम से पदार्थ का चिन्तन करता है उस परिणाम को ध्यान कहते हैं। यह करण साधन की अपेक्षा ध्यान शब्द की निरुक्ति है। आचार्य शभचन्द्र भी ध्यान का स्वरूप बताते हुए कहते हैं कि - विद्वानों में श्रेष्ठ गणधरादिक एकाग्रचिन्ता निरोध को ध्यान बतलाते हैं। यह उत्कृष्ट शरीर बन्धन अर्थात् संहनन से संयुक्त साधु के अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है। किसी एक ही विषय की ओर जो चिन्ता को रोका जाता है, उसका नाम ध्यान है। इससे भिन्न भावनायें होती हैं। उनमें शरीर-संसार आदि अनेक विषयों की ओर चिन्ता का झुकाव होता है। भावनाओं के ज्ञाता उन भावनाओं को अनुप्रेक्षा अथवा अर्थ चिन्ता भी स्वीकार करते हैं। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि मन या चित्त में थोड़ी सी भी चञ्चलता होती है तो वह ध्यान की कोटि में नहीं आ पाता है। ध्यान में चित्त की स्थिरता अर्थात एकाग्रता होनी चाहिये अन्यथा ध्यान सम्भव नहीं। एकाग्रता को ही ध्यान क्यों कहा जाता है? इसका सटीक समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि - इस ध्यान के लक्षण में जो एकाग्र का ग्रहण किया गया है वह व्यग्रता की विनिवृत्ति के लिये है। ज्ञान ही वस्तुतः व्यग्र होता है ध्यान नहीं होता। ध्यान को तो एकाग्र कहा जाता है। आचार्य जिनसेन स्वामी कहते हैं कि आ. पु. 21/9-10 आ. पु. 21/12-13 ज्ञानार्णव 1194-1195 तत्त्वानुशासन 59 243 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International