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________________ पीड़ा सहन न कर व्यक्त करता है। स्थित करना निर्यापन कायरता एवं दी. छोड़ता, साक्षात ती को शरीर सम्बन्धी सारा जीवन जो न न कर सकने के कारण समाधिधारक अन्नादि के त्यागोपरान्त भी उनकी इच्छा करता है। उस समय में क्षपक की मनोदशा को समझते हुए उसे पुनः धर्ममार्ग में करना निर्यापकाचार्य का कर्तव्य है। अतः उद्बोधन देते हुए कहते हैं कि - एवं दीनता व्यक्त करने पर भी असाता कर्म का उदय किसी को भी नहीं साक्षात् तीर्थकर भगवान् भी इसके उदय को रोकने में असमर्थ हैं। प्रत्येक क्षपक और सम्बन्धी कष्ट तो होता ही है, क्योंकि यह शरीर अनन्त दु:खों की खान है। जीवन जो तलवार चलाना सीखे परन्तु युद्धक्षेत्र में जाकर तलवार न चलाये, तब से शत्रु छोड़ देते हैं? कदापि नहीं। उसी प्रकार जो अन्त समय हिम्मत हार जाते पहें असाता वेदनीय कर्म नहीं छोडता है। अनेक जन्मों से इस शरीर को भोजनादि का अभाव इसे सहन नहीं होता है। . इन दु:खों से ऊपर उठना है, तो चिन्तन की धारा को बाह्य की ओर प्रवाहित न के अन्तरंग की ओर मोड़ना होगा और यह विचार करना होगा कि मैंने कई बार शरीर मन को तप्त किया, किन्तु ये कभी तृप्त नहीं हुए। अतः इनकी सेवा करना व्यर्थ terminews समाधिधारक क्षपक आत्मस्वरूप का चिन्तन करता हुआ विचार करता है कि मैं मखमय, एक शुद्धात्मा तथा ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ, अन्य जो परभाव हैं, वे सब कर्म से उत्पन्न होते हैं। मैं नित्य हूँ, जरा-मरण से रहित हूँ, हमेशा अरूपी हूँ, ज्ञानी हूँ, जन्म से रहित हूँ, पर की सहायता से रहित हूँ।' आत्मा एकान्त से न शून्य है, न जड़ है, न पंच महाभूतों से उत्पन्न है, न कर्तृभाव को प्राप्त है, न एक है, न क्षणिक है, न संसार में व्यापक है और न नित्य है किन्तु प्रत्येक क्षण शरीर प्रमाण है, चैतन्य का एक आधार है, कर्ता है, भोक्ता है, स्वयं उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से सहित है और एक है। क्षपक को यह विचार करना चाहिये कि जैसे तलवार सदैव म्यान में रहती हैं, परन्तु वे दोनों एक नहीं हैं अपितु अलग-अलग हैं। वैसे ही आत्मा और कर्म एक साथ रिहते हैं फिर भी दोनों अलग-अलग हैं। अत: जिस प्रकार म्यान से तलवार को अलग कर दिया जाता है उसी प्रकार आत्मा से कर्मों को अलग किया जा सकता है, परन्तु ये भग. आ. गा. 103-104 238 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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