________________ प्रथम परिच्छेद : आराधना का स्वरूप एवं भेद अनादिकाल से यह संसारी प्राणी मिथ्यादर्शन और कषाय के वश में आकरके पञ्चेन्द्रिय के विषयों में आसक्त होता हुआ शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक आदि अनेक दु:खों का भोग कर रहा है। अनन्तकाल तो इस संसारी प्राणी ने एकेन्द्रिय की पर्याय को प्राप्तकर निगोद में व्यतीत किया, जहाँ पर एक श्वास में अट्ठारह बार जन्म और मरण किया। यदि कषायों की मन्दता और पुण्य के योग से भाग्यवशात् कर्मों के कुछ शक्ति सहित फल देने पर दो, तीन, चार इन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय पद प्राप्त किया तो भी मन के बिना हित और अहित, हेय और उपादेय के विचार से रहित होने से आत्महित के विषय से विलग रहा। किसी पुण्योदय से सैनी पञ्चेन्द्रिय भी हुआ तो भी मिथ्यादर्शन और विषय-वासना के वशीभूत होकर आत्मतत्त्व को जानने की जिज्ञासा ही उत्पन्न नहीं हुई। सांसारिक भोगों की वाञ्छा से मुनिव्रत धारण करके घोर उपसर्ग और परीषहों को सहन करके ग्रैवेयकों में पहुँच गया। दैविक सुखों का भोग किया किन्तु शुद्धात्मा का अनुभव एवं ज्ञान नहीं किया। अतः वहाँ से च्युत होकर कई मनुष्य और तिर्यञ्चों की योनियों में भ्रमण करके त्रस पर्याय का काल पूर्ण हो जाने से पुनः निगोद में चला गया। इस संसार में परिभ्रमण करने वाले अनन्त जीव तो रत्नत्रय रूपी महौषधि का सेवन करके अजर-अमर रूप परम पद को प्राप्त करके सदैव के लिये सुखी हो गये, परन्तु द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से ज्ञायक स्वभावी होते हुए भी अनन्तानन्त जीव अपने स्वभाव की श्रद्धा के न होने पर संसार रूपी चक्की के जन्म-मरण रूपी दो पाटों के बीच अनादिकाल से पिसते चले आ रहे हैं। इन दु:खों के नाश करने का एक ही उपाय है कि जिन्होंने मोक्षमार्ग को स्वीकार करके स्वयं मुक्तिधाम को प्राप्त किया और केवली की अवस्था में अपनी दिव्यध्वनि में मोक्ष का सच्चा मार्ग प्ररूपित किया और उस पर चलने की प्रेरणा प्रदान की। उस मार्ग को यदि हम स्वीकार नहीं करते हैं तो हम निजात्मा की उपलब्धि रूप शद्धात्मा की प्राप्ति नहीं कर सकेंगे, क्योंकि शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त कर लेने मात्र से अथवा 'मैं ज्ञायक स्वभावी सिद्ध समान त्रिकाल शुद्ध आत्मा हूँ, मैं अनन्त चतुष्टय का धनी हूँ' इस प्रकार के उद्गारों से हम सिद्ध अथवा शुद्ध अवस्था 203 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org