________________ भोगभूमि, कुभोगभूमि में 1-4 गुणस्थान तक, म्लेच्छखण्डों और समुद्रों में मात्र पहला गुणस्थान ही होता है। और अधिक सूक्ष्मज्ञान करने के लिये सिद्धान्त ग्रन्थों का मनन करना चाहिये। स्थिति विमर्श - प्रथम गुणस्थान की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त एवं सादि-सान्त की अपेक्षा एक अन्तर्मुहूर्त कम अर्द्धपुद्गल परावर्तन काल है। द्वितीय गणस्थान का जघन्य काल एक समय तथा उत्कृष्ट छह आवली प्रमाण है। तीसरे गुणस्थान का जघन्य तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। चतुर्थ गुणस्थान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट काल एक समय और अन्तर्मुहूर्त कम 33 सागर और एक पूर्वकोटि है। पञ्चम गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि है। षष्ठ गुणस्थान से 11वें गुणस्थान तक प्रत्येक का जघन्य काल मरण की अपेक्षा एक समय तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। 12वें गुणस्थान का जघन्य तथा उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। 13वें गुणस्थान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त तथा उत्कृष्ट काल आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्वकोटि है। 14वें गुणस्थान का काल पञ्च लघु अक्षर प्रमाण है। इसमें जघन्य और उत्कृष्ट का भेद नहीं है। - जैनागम में गुणस्थान मूलतत्त्व की तरह काम करता है। गुणस्थान के द्वारा प्रत्येक सूक्ष्म विषय का गम्भीरतम तत्त्व भी साररूप में प्रदर्शित करना जैन आचार्यों और दार्शनिकों की प्रतिभा का दिग्दर्शन कराता है। वर्तमान काल में सम्पूर्ण विश्व पर दृष्टि देने पर प्रतीत होता है कि विश्व जनसंख्या का अधिकाधिक हिस्सा प्रथम गुणस्थान के अन्तर्गत हैं। कुछ अंगुलियों में गिनने योग्य मनुष्य ही चतुर्थ-पञ्चम-षष्ठ और सप्तम गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं। उत्कृष्ट संहनन का वर्तमान में अभाव होने से उपशम और क्षपक श्रेणी का भी अभाव है। अतः सप्तम गुणस्थान से ऊपर जाना संभव नहीं है। पञ्चम काल में मनुष्य मिथ्यात्व सहित ही उत्पन्न होते हैं, अतः पुरुषार्थ पूर्वक सम्यग्दर्शन को प्राप्त करना चाहिये। इस प्रकार का उपदेश देना ही जैन दार्शनिकों का मुख्य उद्देश्य है। गुणस्थान आरोहण की प्रेरणा भी इस उपदेश में गर्भित है। 199 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org