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________________ अनन्त ज्ञानादि विशुद्ध चैतन्य की अपेक्षा सिद्ध भगवान् नित्य हैं अर्थात् अपने शुद्ध स्वभाव से कभी विचलित नहीं होते। पञ्चम विशेषण 'अट्ठगुणा' है। अष्ट कर्मों का क्षय होने से सिद्धों में आठ गुण होते हैं। ज्ञानावरण के क्षय से क्षायिक ज्ञान, दर्शनावरण के क्षय से क्षायिक दर्शन, वेदनीय के क्षय से अव्याबाधत्व, मोहनीय के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व/सुख, आयु के क्षय से अवगाहनत्व, नाम कर्म के क्षय से सूक्ष्मत्व, गोत्र के क्षय से अगुरुलघुत्व और अन्तराय के क्षय से क्षायिक वीर्य नामक 8 गुण प्राप्त होते हैं। ये गुण तो कर्मों के क्षय की अपेक्षा हैं, नहीं तो सिद्धों में अनन्त गुण होते हैं। उनका इन आठ में अन्तर्भाव हो जाता है। छठा विशेषण है 'किदकिच्चा'। समस्त कर्मों का पूर्ण रूप से क्षय हो जाने पर मोक्ष अर्थात् सिद्धावस्था प्राप्त हो जाने से सिद्ध भगवान् को अब कुछ करना शेष नहीं रहा इसलिये वे कृतकृत्य कहलाते हैं। सातवाँ सातवाँ विशेषण है 'लोयग्गणिवासिणो'। यद्यपि अनन्तानन्त प्रदेशी आकाश द्रव्य एक है तथापि धर्मास्तिकाय के कारण उसका लोकाकाश और अलोकाकाश रूप विभाजन हो गया, क्योंकि गमन में सहकारी कारण धर्म द्रव्य के अभाव में जीव और पुद्गल द्रव्य लोक के आगे नहीं जा सकते।' इन सातों विशेषणों के देने का क्या प्रयोजन है उसको स्पष्ट करते हुए आचार्य नेमिचन्द्रस्वामी लिखते हैं कि सदासिव संखो मक्कडि बुद्धो णेयाइयो य वेसेसी। ईसर मंडलिदंसणविदूसणठं कयं एदं॥' अर्थात् सदाशिव, सांख्य, मस्करी, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक, ईश्वर और मंडलि इन दर्शनों अर्थात् मतों को दृषण करने के लिये सिद्धों के विशेषण कहे गये हैं। सिद्धभक्ति गा. 7 पं. का. गा. 92-93 गो. जी. गा. 69 191 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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