________________ विषय उपासकाध्ययनकार एवं कूर्परमंजरी के लेखक द्वारा ग्रहण किया गया हो. इसलिए यह तर्क उचित प्रतीत नहीं होता। पं. परमानन्द जी शास्त्री और भी लिखते हैं कि भावसंग्रह में शिथिलाचार विषयक वर्णन उसे अर्वाचीन घोषित करता है, परन्तु पं. जी का यह तर्क भी उचित प्रतीत नहीं होता, क्योंकि शिथिलाचार की प्रवृत्ति तो प्राचीनकाल से चली आ रही है और भद्रबाहु स्वामी के समय से तो शिथिलाचार में और भी वृद्धि हो गई थी। अतः शिथिलाचार विषयक वर्णन होना अर्वाचीनता को ही प्रकट नहीं करता है। और भी लिखते हैं कि भावसंग्रहकार ने प्राकृत एवं अपभ्रंश के पद्यों को एक साथ रखा / है। प्राकृत और अपभ्रंश के पद एकसाथ लेना कोई दोष नहीं है, क्योंकि इन दोनों भाषाओं में परस्पर समानता जैसी है और प्राकृत भाषा में अपभ्रंश का प्रभाव देखा जाता है और आचार्य देवसेन इन भाषाओं के ज्ञाता थे; इसलिए इसमें कोई आपत्ति प्रतीत नहीं होती है। इसके आगे और लिखते हैं कि पं. आशाधर जी ने इसके बारे में कुछ भी नहीं लिखा अर्थात् पं. जी के समक्ष यह शास्त्र नहीं था। इसमें मेरा मानना है कि पं. आशाधर जी ने इसके बारे में कुछ नहीं लिखा तो यह आवश्यक नहीं कि पं. जी हर शास्त्र की टीका या उस पर कोई लेख लिखें, उनके समक्ष ऐसे कई शास्त्र थे जिनपर उन्होंने कुछ भी नहीं लिखा तो उससे यह सिद्ध तो नहीं होता कि वे शास्त्र उनके बाद रचे गए। आगे लिखते हैं कि 'सुलोचनाचरिउ' और 'भावसंग्रह' के कर्ता एक ही देवसेन है। हमारा मानना है कि 'सुलोचनाचरिउ' अपभ्रंश भाषा में रचित है, परन्तु इन देवसेनाचार्य का अपभ्रंश भाषा में रचित कोई अन्य शास्त्र तो दिखाई नहीं देता, इससे यह सिद्ध नहीं होता। कि 'सुलोचनाचरिउ' के रचयिता यह देवसेनाचार्य हैं। जबकि 'सुलोचनाचरिउ' 12वीं शताब्दी का शास्त्र है और भावसंग्रह 10वीं शताब्दी का शास्त्र है। .. 'पुरातन वाक्य सूची' की प्रस्तावना पृ. 16 पर पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार ने लिखा है कि 'भावसंग्रह' के कर्ता देवसेन पहले हुए तब 'सुलोचनाचरिउ' के कर्ता देवसेन और पाण्डवपुराण की गुरुपरम्परा वाले देवसेन के साथ उनकी एकता नहीं है। इसलिए जब तक कोई प्रमाणिक तथ्य सामने न आये तब तक 'दर्शनसार' और 'भावसंग्रह' ग्रंथ एक ही देवसेनाचार्य रचित हैं। पं. परमानन्द जी कहते हैं कि नयचक्र इन देवसेन का नहीं है, क्योंकि उसमें गाथा 47 के आगे तदुक्त से द्रव्यसंग्रह की गाथा लिखी गई है और द्रव्यसंग्रह बाद का 12 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org