SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 171
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जिस प्रकार कुसुमली रंग भीतर से सूक्ष्म रक्त अर्थात् कम लालिमा वाला होता है। उसी प्रकार सूक्ष्म राग सहित जीव को सूक्ष्म कषाय या सक्ष्म साम्पराय जानना चाहिये।' 2 इस गुणस्थान में होने वाले आवश्यक कार्यों पर प्रकाश डालते हुए आचार्य नेमिचन्द्र स्वामी लिखते हैं कि - पूर्व स्पर्द्धक से अपूर्वस्पर्द्धकों का अनुभाग, अपूर्वस्पर्द्धकों से बादर कृष्टि का अनुभाग और बादर-कृष्टि से सूक्ष्मकृष्टि का अनुभाग क्रमशः अनन्त गुणा हीन होता है। पहले-पहले वाले के जघन्य से बाद-बाद वाले का उत्कष्ट अनुभाग और अपने उत्कृष्ट से अपना जघन्य अनुभाग भी अनन्तगुणे हीनक्रम से होता है। .. अब इनके स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए आचार्य लिखते हैं स्पर्द्धक - अनेक प्रकार की शक्तियों से युक्त कार्मण वर्गणा के समूह को स्पर्द्धक कहते हैं। पूर्व स्पर्द्धक - अनिवृत्तिकरण गुणस्थान के पहले जो स्पर्द्धक पाये जाते हैं उन्हें पूर्वस्पर्द्धक कहते हैं। अपूर्व स्पर्द्धक - अनिवृत्तिकरण द्वारा जिसका अनुभाग क्षीण कर दिया गया है उन्हें अपूर्व स्पर्द्धक कहते हैं। कृष्टि - कर्म की शक्ति को कृश (कम) करना ही कृष्टि कहलाता है। बादर कृष्टि - अपूर्व स्पर्द्धक से अनन्त गुणी हीन शक्ति जिसमें हो उसे बादर कृष्टि कहते हैं। सूक्ष्म कृष्टि - बादर कृष्टि से अनन्त गुणा हीन अनुभाग जिसमें हो वह सूक्ष्म कृष्टि कहलाता है। यह गुणस्थान भी उपशम श्रेणी तथा क्षपक श्रेणी दोनों में होता है। उपशम श्रेणी में सूक्ष्म लोभ के अतिरिक्त समस्त मोहनीय कर्म का उपशम पाया जाता है तथा क्षपक प्रा. पं. सं. 1/22, गो. जी. गा. 59, भा. सं. गा. 654 गो. जी. गा. 58 165 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy