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________________ और पवित्र होता है, और कभी भी छूटता नहीं है, क्योंकि यह सम्यक्त्व सात प्रकृतियों के क्षय करने से होता है। जो प्रकृति नष्ट हो चुकी है तो वह फिर पुनः उदय में नहीं आ सकती है इसीलिये, यह सम्यक्त्व नित्य होता है। कक्षायोपशमिक सम्यक्त्व अथवा वेदक सम्यक्त्व यह सम्यक्त्व दोनों सम्यक्त्वों अर्थात् औपशमिक और क्षायिक का मिश्रण रूप है। इसी कारण तो इसका मिश्ररूप नामकरण हुआ है क्षायोपशमिक सम्यक्त्व। आचार्यों ने इसका दूसरा नाम वेदक सम्यक्त्व दिया है। इस दूसरे नाम के रखने का कारण स्पष्ट करते हए धवलाकार कहते हैं कि - जिसको सम्यक्त्व संज्ञा है ऐसी दर्शन मोहनीय कर्म की भेद रूप प्रकृति के उदय से यह जीव वेदक सम्यग्दृष्टि कहलाता है। सम्यक्त्व का एकदेश रूप से वेदन कराने वाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय के कारण इसका नाम वेदक सम्यक्त्व है। के सम्यक्त्व का स्वरूप स्पष्ट करते हुए आचार्य पूज्यपाद स्वामी आदि आचार्य लिखते हैं कि - चार अनन्तानुबन्धी, क्रोध, मान, माया, लोभ, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियों का उदयाभावी क्षय अथवा स्तिबुक संक्रमण और इन्हीं छहों का सदवस्थारूप उपशम अर्थात् उदीरणा का अभाव होने से और देशघाती स्पर्द्धक वाली सम्यक्त्व प्रकृति के उदय होने पर जो तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है उसे क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। धवलाकार इसका स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि - सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृति के उदय से पदार्थों का जो चल, मलिन और अगाढ़ रूप श्रद्धान होता है उसको वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व का उदाहरण देते हुए आचार्य लिखते हैं कि - जिस प्रकार किसी गन्दे पानी में फिटकरी घुमा देने से जो मैल नीचे बैठ गया था अब उस पानी को दूसरे बर्तन में निकालते समय थोड़ा सा मैल पानी के साथ में आ जाता है। वह पानी पूर्ण निर्मल एवं शुद्ध नहीं रह पाता है, उसी प्रकार इसमें भी सम्यक्त्व प्रकृति के उदय रहने से सम्यक्त्व में पूर्ण निर्मलता नहीं आ पाती है। इसी कारण से इसको सदोष सम्यक्त्व कहते हैं। सम्यक्त्व प्रकृति के उदय ध. 1/1, गा. 172, पं. सं. प्रा. 1/164 स. सि. 2/5, रा. वा. 2/5/8, गो. जी. का. गा. 25, भा. सं. गा. 268,269 ध. 1/1, गा. 215, गो. जी. का. गा. 649 137 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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