________________ स्वरूप का व्याख्यान सभी आचार्यों ने बड़े ही महत्त्व के साथ किया है। इसका स्वरूप बताते हुए आचार्य कहते हैं कि - दर्शन मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय अर्थात् नष्ट हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। यह सम्यक्त्व नित्य है और कर्मों का नाश करने का प्रमुख कारण है। इसी विषय को और अधिक स्पष्ट करते हए सर्वार्थसिद्धिकार लिखते हैं कि - सात प्रकृतियों अर्थात् दर्शन मोहनीय की तीन और अनन्तानुबन्धी की चार क्रोधादि के अत्यन्त विनाश हो जाने से जो श्रद्धान उत्पन्न होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व की महिमा का गुणगान करते हए धवलाकार आचार्य वीरसेन स्वामी कहते हैं कि - क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव कभी भी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं होता, किसी प्रकार के कोई सन्देह को भी नहीं करता और मिथ्यात्वजन्य अतिशयों को देखकर आश्चर्य नहीं करता है। कई आचार्य इसको मेरु के समान निष्कम्प, निर्मल और अक्षय अनन्त कहते हैं और कहते हैं कि - क्षायिक सम्यक्त्व के प्राप्त होने पर उस जीव के ऐसी विशाल, गम्भीर एवं दृढबुद्धि उत्पन्न हो जाती है कि वह कुछ भी अनहोनी घटनायें देखकर भी विस्मय या क्षोभ को प्राप्त नहीं होता है। आचार्य ब्रह्मदेवसूरि अपनी शैली में क्षायिक सम्यक्त्व के स्वरूप को उल्लिखित करते हैं कि - शुद्ध आत्मा आदि पदार्थों के विषय में विपरीत अभिनिवेश रहित परिणाम क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है।" क्षायिक सम्यक्त्व की विशेषता बताते हुए आचार्य लिखते हैं कि - क्षायिक सम्यक्त्व सीधा मिथ्यादृष्टि अवस्था से कभी नहीं होता है। सर्वप्रथम औपशमिक, फिर शायोपशमिक और उसके बाद क्षायिक सम्यक्त्व होता है अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व शायोपशमिक सम्यक्त्व पूर्वक ही होता है। क्षायिक सम्यक्त्व अकस्मात् अथवा एकाएक नहीं होता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व रूपी सीढ़ी से चढ़कर ही क्षायिक सम्यक्त्व रूपी छत पर पहँचा जा सकता है। क्षायिक सम्यक्त्व सदैव केवली अथवा श्रुत केवली के पादमूल में ही सम्भव है। इसी कारण यह सम्यक्त्व शुद्ध निर्मल जल के समान शुद्ध पे. सं. प्रा. 1/160, गो. जी. का. गा. स. सि. 2/4/154, रा. वा. 2/4/7, ल. सा. 164/217, भा. सं. गा. 267 ध. 1/1,1,12/171 द्र. सं. टीका गा. 14 रा. वा. 2/1/8, गो. जी. / जी. प्र. 704 136 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org