SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतर्थ परिच्छेद : प्रमाण का स्वरूप एवं भेद आचार्य देवसेन स्वामी ने प्रमाण का लक्षण नय की अपेक्षा अत्यन्त न्यून किया / उसी में प्रमाण का लक्षण करते हुए आचार्य देवसेन स्वामी लिखते हैं कि समस्त वस्त को ग्रहण करने वाला ज्ञान प्रमाण है। जिस ज्ञान के द्वारा वस्तुस्वरूप जाना जाता है, निश्चय किया जाता है, वह ज्ञान प्रमाण है। सविकल्प और निर्विकल्प के भेद से प्रमाण दो प्रकार का है। जिस ज्ञान में प्रयत्नपर्वक, विचारपूर्वक या इच्छापूर्वक पदार्थ को जानने के लिये उपयोग लगाना पडे वह सविकल्पक ज्ञान है। यह चार प्रकार है। 1. मतिज्ञान 2. श्रुतज्ञान 3. अवधिज्ञान 4. मनःपर्ययज्ञान। जिस ज्ञान में प्रयत्नपूर्वक, विचारपूर्वक या इच्छापूर्वक पदार्थ को जानने के लिए उपयोग नहीं लगाना पड़े वह निर्विकल्पक ज्ञान है। इसका सिर्फ एक ही भेद है वह है केवलज्ञान। केवलज्ञान मनोरहित अर्थात् इच्छा या विचाररहित होता है। अन्य पूर्वाचार्यों ने प्रमाण के दो भेद किये है जो प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में हैं।' जो बिना किसी माध्यम के साक्षात् आत्मा से जानता है वह प्रत्यक्ष ज्ञान है, जो एकदेश और सकलदेश के भेद से दो प्रकार का है। एकदेश प्रत्यक्ष में अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान एवं सकलदेश प्रत्यक्ष में केवलज्ञान है। जो इन्द्रिय और मन के माध्यम से जानता है वह परोक्ष ज्ञान है। जिसमें मतिज्ञान और श्रृतज्ञान को ग्रहण किया गया है। इन पाँचों ज्ञानों के स्वरूप की विशेष व्याख्या प्रथम अध्याय में कर आये हैं। अतः यहाँ पुनरावृत्ति नहीं करना ही उचित प्रतीत होता है। इसीलिए यहाँ मात्र नामोल्लेख ही करना समुचित है। तत्प्रमाणे। आद्ये परोक्षम्। प्रत्यक्षमन्यत्। त. सू. 1/10-12 97 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004264
Book TitleDevsen Acharya ki Krutiyo ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages448
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy