SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगमों में मात्र मूलाचार और भगवती आराधना को, जो अपनी विषय-वस्तु के लिये अर्द्धमागधी आगम-साहित्य के ऋणी हैं, इस कोटि में रखा जा सकता है, किन्तु शेष आगमतुल्य शौरसेनी ग्रन्थ जैनधर्म को सीमित घेरों में आबद्ध ही करते हैं। (स) शौरसेनी-आगम तुल्य ग्रन्थों और परवर्ती महाराष्ट्री प्राकृत में रचित ग्रन्थों के आधार.... आगम शौरसेनी–आगम तुल्य ग्रन्थों और महाराष्ट्री-आगमिक व्याख्या साहित्य के आधार रहे हैं। अर्द्धमागधी आगमों की व्याख्या के रूप में क्रमशः नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टब्बा आदि लिखे गये हैं, ये सभी जैनधर्म एवं दर्शन के प्राचीनतम स्रोत हैं। यद्यपि शौरसेनी आगम और व्याख्या साहित्य में चिन्तन के विकास के साथ-साथ देश, काल और सहगामी परम्पराओं के प्रभाव से बहुत कुछ ऐसी सामग्री भी है, जो उनकी अपनी मौलिक कही जा सकती है, फिर भी आगमों को उनके अनेक ग्रन्थों के मूल स्रोत के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। मात्र मूलाचार में ही तीन सौ से अधिक गाथाएँ उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, आवश्यकनियुक्ति, जीवसमास, आतुरप्रत्याख्यान, चन्द्रवेध्यक (चन्दावेज्झय) आदि में उपलब्ध होती हैं। इसी प्रकार, भगवतीआराध ना में भी अनेक गाथाएँ अर्द्धमागधी आगम और विशेष रूप से प्रकीर्णकों (पइन्ना) से मिलती हैं। षट्खण्डागम और प्रज्ञापना में भी जो समानताएँ परिलक्षित होती हैं, उनकी विस्तृत चर्चा पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने (प्रो. ए.एन.उपाध्ये व्याख्यानमाला में) की है। नियमसार की कुछ गाथाएँ अनुयोगद्वार एवं इतर आगमों में भी पाई जाती हैं, जबकि समयसार आदि कुछ ऐसे शौरसेनी आगम तुल्य ग्रन्थ भी हैं, जिनकी मौलिक रचना का श्रेय उनके कर्ताओं को ही है। ति लोयपन्नत्ति का प्राथमिक रूप विशेष रूप से आवश्यकनियुक्ति तथा कुछ प्रकीर्णकों के आधार पर तैयार हुआ था, यद्यपि बाद में उसमें पर्याप्त रूप से परिवर्तन और परिवर्द्धन किया गया है। इस प्रकार शौरसेनी, आगम तुल्य ग्रन्थों के निष्पक्ष अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि उनका मूल आधार प्राचीन आगम-साहित्य ही रहा है, तथापि उनमें जो सैद्धान्तिक गहराइयाँ और विकास परिलक्षित होते हैं, वे उनके रचनाकारों की मौलिक देन हैं। प्राकृत का जैन आगम साहित्य : एक विमर्श / 45 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004262
Book TitlePrakrit ka Jain Agam Sahitya Ek Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2014
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy